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आठवाँ प्रवचन यह मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्र है। इसमें पाँचवें अधिकार से गृहीत मिथ्यादर्शन, गृहीत मिथ्याज्ञान और गृहीत मिथ्याचारित्र का विवेचन आरंभ हुआ है, जिसमें अभी जैनेतर मतों की समीक्षा संबंधी प्रकरण चल रहा है। इस पाँचवें अधिकार की विषयवस्तु का उल्लेख करते हुए ‘पण्डित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व' में लिखा गया है त
"पाँचवें अधिकार में गृहीत मिथ्यात्व का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसके अंतर्गत विविध मतों की समीक्षा की गई है जिसमें सर्वव्यापी अद्वैतब्रह्म, सृष्टिकर्तावाद, अवतारवाद, यज्ञ में पशु-हिंसा, भक्तियोग, ज्ञानयोग, मुस्लिममत, सांख्यमत, नैयायिकमत, वैशेषिकमत, मीमांसकमत, जैमिनीयमत, बौद्धमत, चार्वाकमत की समीक्षा की गई है तथा उक्त मतों और जैनमत के बीच तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
अन्य मतों के प्राचीनतम महत्त्वपूर्ण ग्रंथों के आधार पर जैनमत की प्राचीनता और समीचीनता सिद्ध की गई है। तदनन्तर जैनियों के अंतर्गत सम्प्रदाय श्वेताम्बरमत पर विचार करते हुए स्त्रीमुक्ति, शूद्रमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति, केवली-कवलाहार-निहार, ढूंढकमत, मूर्तिपूजा, मुँहपट्टी आदि विषयों पर युक्तिपूर्वक विचार किया गया है।" ___अन्यमतों से जैनमत की तुलना करते हुए कहा था कि जैनदर्शन वीतरागभाव को धर्म मानता है; इसलिए सम्पूर्ण जिनवाणी में यत्र-तत्रसर्वत्र वीतराग भाव का ही पोषण किया गया है।
मैंने स्वयं देव-शास्त्र-गुरु पूजन की जयमाला में जिनवाणी की स्तुति के प्रकरण में लिखा है कि ह्र ।
राग धर्ममय धर्म रागमय अबतक ऐसा जाना था।
शुभकर्म कमाते सुख होगा बस अबतक ऐसा माना था।। १. पण्डित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व, पृष्ठ २५-२६
आठवाँ प्रवचन
११५ पर आज समझ में आया है कि वीतरागता धर्म अहा। रागभाव में धर्म मानना जिनमत में मिथ्यात्व कहा।। वीतरागता की पोषक ही जिनवाणी कहलाती है।
यह है मुक्ति का मार्ग निरन्तर हमको जो दिखलाती है।। पंचास्तिकाय की समयव्याख्या नामक टीका में लिखा है कि समस्त शास्त्रों का तात्पर्य एकमात्र वीतरागता ही है।'
पण्डित टोडरमलजी तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ह्र इन तीनों को ही वीतरागता के रूप में देखते हैं। वे लिखते हैं ह्र
"इसलिए बहुत क्या कहें ह्र जिसप्रकार से रागादि मिटाने का श्रद्धान हो, वही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है; जिसप्रकार से रागादि मिटाने का जानना हो, वही जानना सम्यग्ज्ञान है तथा जिसप्रकार से रागादि मिटें, वही आचरण सम्यक्चारित्र है ह्र ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य है।" ___पण्डितजी के उक्त कथन में सम्यग्दर्शनादि तीनों की परिभाषाओं में रागादि का मिटना ही मुख्यरूप से विद्यमान है। जैनदर्शन की मूल भावना तो यही है।
उक्त संदर्भ में पण्डितजी की निम्नांकित पंक्तियाँ भी द्रष्टव्य हैं ह्र ___“जैनमत में एक वीतरागभाव के पोषण का प्रयोजन है; सो कथाओं में, लोकादिक के निरूपण में, आचरण में व तत्त्वों में; जहाँ-तहाँ वीतराग भाव की पुष्टि की है। तथा अन्यमतों में सरागभाव के पोषण का प्रयोजन
उक्त संदर्भ में पण्डितजी महाकवि भतृहरि के वैराग्यशतक का एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है ह्र
"एको रागिषु राजते प्रियतमादेहार्द्धधारी हरो,
नीरागेषु जिनो विमुक्तललनासङ्गो न यस्मात्परः । १. आचार्य कुन्दकुन्द : पंचास्तिकाय, गाथा १७२ की टीका २. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ-२१३ ३. वही, पृष्ठ १३७