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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार उपयोगिता ही बताते हैं; पर धर्म की चर्चा में यह कहने में भी डर लगता है कि हमारी दार्शनिक मान्यता ही सत्य है।
मेरे उक्त चिन्तन पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। पण्डित टोडरमलजी तो साफ-साफ कहते हैं कि हम अपनी बात भी कहेंगे, उसे सत्य भी सिद्ध करेंगे; पर किसी से झगड़ा नहीं करेंगे।
यदि सामनेवाला फिर भी झगड़ा करेगा तो हम चुप रहेंगे; उसकी बात का उत्तर नहीं देंगे, पर अपनी बात कहना भी बंद नहीं करेंगे । यह मोक्षमार्गप्रकाशक का सार उन लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है, जो जैन हैं; जैनदर्शन में जिनकी पूर्ण आस्था है । अत: उनके समक्ष अन्य दर्शनों की मीमांसा करना आवश्यक नहीं है। उदाहरण के तौर पर हम कह सकते हैं कि जब यहाँ बैठा कोई व्यक्ति ईश्वर को जगत का कर्ता-धर्ता मानता ही नहीं है तो फिर उसके सामने यह प्रस्तुत करने की क्या आवश्यकता है कि ईश्वर जगत का कर्ता-धर्ता नहीं है।
इसप्रकार जैनेतर मतों की समीक्षा पर अधिक बोलना-लिखना न तो आज के युग की परिस्थितियों के अनुकूल है और न इसकी विशेष आवश्यकता हमारे श्रोताओं और पाठकों को ही है। जिन लोगों को विशेष जिज्ञासा हो, वे लोग मूल ग्रन्थ का गहराई से स्वाध्याय करें।
इस अधिकार में जैनदर्शन की प्राचीनता सिद्ध करते हुए जैनेतर ग्रन्थों के अनेकानेक उद्धरण प्रस्तुत किये हैं; जो जैनदर्शन की प्राचीनता को तो सिद्ध करते ही हैं; साथ में पण्डितजी के जैन और जैनेतर ग्रन्थों के गंभीर अध्ययन को भी प्रस्तुत करते हैं।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इस ग्रंथ मोक्षमार्गप्रकाशक में विभिन्न प्राचीनतम भाषाओं में लिखे विभिन्न दर्शनों के महाभारत जैसे विशाल ६७ ग्रन्थों के सैकड़ों उद्धरण दिये गये हैं; जिनमें प्राचीनतम ग्रंथ वेदों के उद्धरण भी शामिल हैं।
उक्त ६७ ग्रन्थों में ३८ ग्रंथ तो जैनेतर भारतीय दर्शनों के ग्रन्थ हैं तथा
सातवाँ प्रवचन
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१९ जैन ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों की सूची मेरे शोध ग्रंथ 'पण्डित टोडरमल व्यक्तित्व और कर्तृत्व' के पृष्ठ ३०-३१ पर दी गई है।
पण्डित टोडरमलजी के काल में ग्रन्थों की मुद्रण व्यवस्था नहीं थी। सभी ग्रंथ हस्तलिखित प्रतियों में ही प्राप्त होते थे। इसकारण उनकी उपलब्धता अत्यन्त कठिन थी। हमारी समझ में ही नहीं आता कि उन्होंने इतने ग्रन्थ कहाँ से और कैसे उपलब्ध किये थे ।
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कोई करोड़पति सेठ तो थे नहीं। उन्हें अपनी आजीविका के लिए जयपुर छोड़कर लगभग १५० किलोमीटर दूर सिंघाणा जाना पड़ा था । वहाँ वे एक साहूकार के यहाँ मुनीमी का कार्य करते थे। ऐसी परिस्थिति में ग्रंथों की उपलब्धता और भी कठिन हो जाती है।
उस जमाने में लोगों के घरों में तो शास्त्रों के उपलब्ध होने का कोई सवाल ही नहीं उठता, मंदिरों के शास्त्रभण्डारों में ही शास्त्र उपलब्ध होते थे। वे भी एक-एक, दो-दो प्रतियों में। उन्हें घर ले जाना संभव नहीं था, मंदिर में बैठकर ही उनका स्वाध्याय करना पड़ता था ।
पठन-पाठन की कोई विशेष व्यवस्था नहीं थी ह्न ऐसी परिस्थितियों में इतने महान ग्रन्थों का इतना गहरा अध्ययन; उनकी प्रतिभा, निष्ठा, धर्मप्रियता और करुणाभाव को प्रदर्शित करता है।
जैन मान्यतानुसार तो जैनदर्शन अनादि से है। तीर्थंकर जैनदर्शन के प्रवर्तक नहीं, प्रचारक हैं। जैनेतर ग्रन्थों के आधार पर भी यह सिद्ध होता है कि जैनदर्शन सभी दर्शनों में प्राचीनतम दर्शन है। यह जानने के लिए पाँचवें अधिकार के इस प्रकरण का अध्ययन गहराई से अवश्य करना चाहिए ।
जैनधर्म की प्राचीनता को सिद्ध करनेवाले इस प्रकरण के अध्ययन और प्रचार-प्रसार करने की सर्वाधिक आवश्यकता है; क्योंकि आजकल जैनेतर लोगों में यह प्रचार बड़े पैमाने पर हो रहा है कि बौद्धधर्म भगवान बुद्ध ने चलाया और उसी समय जैनधर्म की स्थापना भगवान महावीर ने की थी। इस भ्रामक प्रचार के निषेध के लिए यह अत्यन्त उपयोगी प्रकरण है । इस दृष्टि से इस प्रकरण का पठन-पाठन अवश्य होना चाहिए ।