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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार
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होता । तात्पर्य यह है कि जिसे गृहीत मिथ्यात्व है, उसे अगृहीत मिथ्यात्व तो होता ही है; पर सभी अगृहीत मिथ्यादृष्टियों को गृहीत मिथ्यात्व हो ही ह्न यह आवश्यक नहीं है।
अरे, भाई ! यह गृहीत मिथ्यात्व अमूल्य नर भव को बरबाद करनेवाली मनुष्यगति की नई कमाई है।
आश्चर्य तो इस बात का है; जो मनुष्य भव, भव को काटने के काम आ सकता था; वह अमूल्य मनुष्य भव गृहीत मिथ्यात्व के चक्कर में पड़कर स्व-पर के भव बढ़ाने का काम कर रहा है।
यह गृहीत मिथ्यादर्शनादि अनादिकालीन अगृहीत मिथ्यादर्शनादि को पुष्ट करते हैं।
महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र में 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ह्र तत्त्वार्थों का श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है' ह्न ऐसा कहकर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्वार्थों के परिज्ञानपूर्वक सम्यक् श्रद्धान को आवश्यक बताया गया है। यही कारण है कि महापण्डित टोडरमलजी इस मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ में उनका विवेचन विस्तार से करना चाहते थे।
जीवादि नव तत्त्वार्थों का निरूपण उन्होंने नौवें अधिकार में आरंभ भी किया था; परन्तु हम सभी के दुर्भाग्य से वह लिखा नहीं जा सका।
यद्यपि जीवादि तत्त्वार्थों का विशद विवेचन वे नहीं लिख सके; तथापि मोक्षमार्गप्रकाशक जिस रूप में हमें आज उपलब्ध है, उसमें उन्होंने बहुत विस्तार से यह स्पष्ट कर दिया कि जीवादि पदार्थों को समझने में हमसे किस-किसप्रकार की, क्या-क्या भूलें होती रही हैं।
इन भूलों की चर्चा उन्होंने दो स्थानों पर की है। चौथे अधिकार में अगृहीत मिथ्यादर्शन की अपेक्षा और सातवें अधिकार में गृहीत मिथ्यादर्शन की अपेक्षा । अभी हम चौथे अधिकार में समागत जीवादि तत्त्वार्थों संबंधी भूलों की चर्चा कर रहे हैं।
चौथा प्रवचन
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आत्महितकारी प्रयोजनभूत तत्त्वों का अयथार्थ श्रद्धान ही अगृहीत मिथ्यादर्शन है और इनका यथार्थ श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। अतः सर्वप्रथम प्रयोजनभूत तत्त्वों को जानना अति आवश्यक है। यही कारण है कि चौथे अधिकार में पण्डितजी प्रयोजनभूत तत्त्वों का स्वरूप स्पष्ट करते हैं।
वे लिखते हैं ह्र "यहाँ कोई पूछे कि प्रयोजनभूत और अप्रयोजनभूत पदार्थ कौन हैं ?
समाधान ह्र इस जीव को प्रयोजन तो एक यही है कि दुःख न हो और सुख हो । किसी जीव के अन्य कुछ भी प्रयोजन नहीं है। तथा दुःख का न होना, सुख का होना एक ही है; क्योंकि दुःख का अभाव वही सुख है और इस प्रयोजन की सिद्धि जीवादिक का सत्य श्रद्धान करने से होती है। कैसे ? सो कहते हैं
प्रथम तो दुःख दूर करने में आपापर का ज्ञान अवश्य होना चाहिए । यदि आपापर का ज्ञान नहीं हो तो अपने को पहिचाने बिना अपना दुःख कैसे दूर करे ? अथवा आपापर को एक जानकर अपना दुःख दूर करने के अर्थ पर का उपचार करे तो अपना दुःख दूर कैसे हो ?
अथवा अपने से पर भिन्न हैं, परन्तु यह पर में अहंकार-ममकार करे तो उससे दुःख ही होता है। आपापर का ज्ञान होने पर ही दुःख दूर होता है। तथा आपापर का ज्ञान जीव-अजीव का ज्ञान होने पर ही होता है; क्योंकि आप स्वयं जीव हैं, शरीरादिक अजीव हैं।
यदि लक्षणादि द्वारा जीव-अजीव की पहिचान हो तो अपनी और पर की भिन्नता भासित हो; इसलिए जीव-अजीव को जानना ।
अथवा जीव - अजीव का ज्ञान होने पर, जिन पदार्थों के अन्यथा श्रद्धान से दुःख होता था, उनका यथार्थ ज्ञान होने से दुःख दूर होता है; इसलिए जीव- अजीव को जानना ।
तथा दुःख का कारण तो कर्म बन्धन है और उसका कारण