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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार में जैनों में पायी जानेवाली कुदेवादि की प्रवृत्तिरूप गृहीत मिथ्यादर्शनादि की और सातवें अधिकार में जैनियों में ही पाई जानेवाली तात्त्विक भूलों संबंधी गृहीत मिथ्यात्वादि की चर्चा है। __कुछ लोगों का कहना है कि पाँचवें व छठवें अधिकार में गृहीत मिथ्यात्वादि का और सातवें अधिकार में अगृहीत मिथ्यात्वादि का निरूपण है; क्योंकि उनके अनुसार जैनियों के तो गृहीत मिथ्यात्वादि हो ही नहीं सकते । उनका कहना यह है कि जब कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु जैनियों में होते ही नहीं; तब जैनियों को कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरुओं के निमित्त से होनेवाला गृहीत मिथ्यात्व कैसे हो सकता है?
उनका यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि अगृहीत मिथ्यात्व अनादिकालीन होता है; इसकारण एकेन्द्रियादि पर्यायों में भी पाया जाता है; किन्तु गृहीत मिथ्यात्व कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु के निमित्त से बुद्धिपूर्वक ग्रहण किया जाता है; अत: सैनी पंचेन्द्रियों के ही होता है। सैनी पंचेन्द्रियों में भी विशेष कर मनुष्यों में, मनुष्यों में भी कर्मभूमि के मनुष्यों में ही पाया जाता है।
भले ही उनकी मान्यता के अनुसार जैनियों में कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु न होते हों; पर आज के जैनियों में बुद्धिपूर्वक स्वीकार की गई तात्त्विक भूलें और देव-शास्त्र-गुरु संबंधी गलत मान्यताएँ तो पाई ही जाती हैं। अरे, भाई ! हम यह क्यों भूल जाते हैं कि जैनियों में भी तो मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि होते हैं। जैनियों में भी ऐसे अनेक मतमतान्तर हो गये हैं; जिनकी देव-शास्त्र-गुरु संबंधी मान्यताएँ वीतरागता के विरुद्ध हैं। अत: यह कहने में क्या दम है कि जैनियों में देव-शास्त्रगुरु संबंधी मिथ्या मान्यता नहीं है या कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु नहीं हैं।
यदि हम और अधिक स्पष्ट करें तो कह सकते हैं कि मुख्यरूप से पाँचवें अधिकार में जैनेतरों के साथ श्वेताम्बर जैनों के, छठवें अधिकार में दिगम्बरों में बीसपंथी दिगम्बरों के और सातवें अधिकार में तेरापंथी
चौथा प्रवचन दिगम्बरों में पाये जानेवाले गृहीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का निरूपण है। ___ इस पर कुछ लोग कहते हैं कि पण्डितश्री टोडरमलजी ने किसी को भी नहीं छोड़ा; न श्वेताम्बरों को, न दिगम्बरों को; न बीस पंथियों को, न तेरापंथियों को; सभी की जमकर धुनाई की है। ____अरे, भाई ! उन्होंने तो किसी की भी धुनाई नहीं की, उन्होंने तो सभी जीवों पर, सभी जैनियों पर अनंत करुणा करके, उनकी उन गंभीर भूलों की ओर ध्यान आकर्षित किया है कि जिन भूलों के कारण वे आत्महितकारी सर्वोत्कृष्ट जैनधर्म पाकर भी आत्महित से वंचित हैं, अनंत दु:ख उठा रहे हैं।
वे तो सच्चे हृदय से यह चाहते थे कि सभी जीव अपनी भूल सुधार कर सन्मार्ग पर लगें और अनंत सुख की प्राप्ति करें। लगभग प्रत्येक अधिकार के अन्त में प्रगट किये गये उनके उद्गारों से यह बात अत्यन्त स्पष्ट है।
उक्त संदर्भ में अपनी उत्कृष्ट भावना व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं ह्र
“यहाँ नानाप्रकार के मिथ्यादृष्टियों का कथन किया है। उसका प्रयोजन यह जानना कि उन प्रकारों को पहिचानकर अपने में ऐसा दोष हो तो उसे दूर करके सम्यक्श्रद्धानी होना, औरों के ही ऐसे दोष देख-देखकर कषायी नहीं होना; क्योंकि अपना भला-बुरा तो अपने परिणामों से है। औरों को तो रुचिवान देखें तो कुछ उपदेश देकर उनका भी भला करें।
इसलिए अपने परिणाम सुधारने का उपाय करना योग्य है: सर्वप्रकार के मिथ्यात्वभाव छोड़कर सम्यग्दृष्टि होना योग्य है; क्योंकि संसार का मूल मिथ्यात्व है, मिथ्यात्व के समान अन्य पाप नहीं है।"
ध्यान रहे यह गृहीत मिथ्यात्व, अगृहीत मिथ्यादृष्टियों को ही होता है। जिनके अगृहीत मिथ्यात्व नहीं है, उनके गृहीत मिथ्यात्व भी नहीं
१. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ-२६६-२६७