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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार 'आतम के अहित विषय-कषाय' के साथ 'इनमें मेरी परिणति न जाय' लिखकर दौलतरामजी ने तीसरी इच्छा की ओर संकेत किया है।
जब पाँच इन्द्रियों के विषयों को छोड़ने की बात चलती है तो हम भोग-सामग्री को छोड़ने की बात करने लगते हैं, पर मैं यह नहीं कहता कि विषय-सामग्री के भोग का त्याग नहीं करना चाहिये; पर यह अवश्य कहना चाहता हूँ कि यहाँ पण्डित टोडरमलजी विषय का अर्थ परज्ञेयों को जानने-देखने की इच्छा को बता रहे हैं और उसे ही दुःखरूप सिद्ध कर रहे हैं। उनका कहना यह है कि जानने-देखने की इच्छावालों को क्षायोपशमिक ज्ञान होता है। इसकारण उनकी जानने की शक्ति तो होती है अत्यन्त अल्प और इच्छा सम्पूर्ण जगत को जानने की रहती है; इसकारण वे निरन्तर आकुलित रहते हैं।
इसीप्रकार कषाय शब्द के व्यापक अर्थ तक भी हम नहीं पहुँच पाते। अकेली क्रोध-मान ही कषायें नहीं हैं, हास्यादि भी कषायें हैं। जब हम खिलखिलाकर हँस रहे होते हैं, तब क्या हम यह अनुभव करते हैं कि हम कषाय कर रहे हैं, इसलिये दुःखी हैं। हँसते समय तो हम स्वयं को सुखी ही मानते हैं, आनन्दित ही होते हैं।
इसीप्रकार जब हम डर रहे होते हैं, शोक कर रहे होते हैं, ग्लानि से भर गये होते हैं; तब भी क्या हम यह अनुभव करते हैं कि हम कषाय कर रहे हैं। विगत प्रकरण में तो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद को भी कषाय शब्द में गर्भित किया गया है, जिसकी चर्चा विस्तार से हो चुकी है।
अरे भाई ! पण्डित टोडरमलजी तो यहाँ यह कहना चाहते हैं कि पाँचों इन्द्रियों के माध्यम से जानने-देखने की इच्छा का त्याग विषय का त्याग है और मिथ्यात्वादि कषायभावों के अनुसार कार्य करने की इच्छा के त्याग का नाम कषाय का त्याग है।
इसीप्रकार पाप और पुण्य के उदयरूप इच्छाओं के संबंध में भी गहरे चिन्तन की आवश्यकता है।
चौथा प्रवचन
प्रतिकूल संयोगों की प्राप्ति को हम पाप का उदय मानते हैं और अनुकूल संयोगों की प्राप्ति को पुण्य का उदय; पर यहाँ तो पाप कर्म के उदय में प्राप्त प्रतिकूल संयोगों को दूर करने की इच्छा को पाप का उदय कहा जा रहा है। तात्पर्य यह है कि असली पाप का उदय तो उक्त प्रतिकूल संयोगों को टालने की इच्छा का नाम है। हम उस इच्छा का अभाव तो करते नहीं, करना भी नहीं चाहते और संयोगों के हटाने के विकल्पों में उलझे रहते हैं; जबकि इनका हटना-न-हटना हमारे हाथ में नहीं है। __इसीप्रकार हम तो पुण्य के उदय से प्राप्त भोग सामग्री को पुण्य का उदय समझते हैं; जबकि यहाँ उक्त सामग्री को भोगने की इच्छा को पुण्य का उदय कहा गया है और उस इच्छा का त्याग करने की प्रेरणा दी जा रही है, परन्तु हम तो पुण्य के उदय की कामना करते हैं। __कदाचित् किसी जीव को पुण्य के उदय से भोगसामग्री प्राप्त हो जाय, कषायों की पूर्ति का प्रसंग बन जाय, मान-सम्मान प्राप्त हो जाय; जिस का वह बुरा चाहता है, कदाचित् उसका बुरा भी हो जाय; सभी प्रकार की इच्छाओं के अनुकूल प्रसंग बन जाये; तब भी वह जीव सुखी नहीं हो सकता; क्योंकि वह सभी प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति में एकसाथ प्रवृत्त नहीं हो सकता।
एक समय में एक प्रकार की अनुकूलता को ही भोग सकता है। इस कारण जिस समय वह एक वस्तु का उपभोग कर रहा है. उसकी अनुकूलता का वेदन न करके, जिन्हें भोगना संभव नहीं हो पा रहा है, उनको न भोग पाने की आकुलता का वेदन करके दु:खी होता रहता है।
दस-दस मकान हैं, एक-एक में अनेक वातानुकूलित कमरे हैं; दस-बीस वातानुकूलित गाड़ियाँ खड़ी हैं; पर जेठ की दुपहरी में विशाल पाण्डाल में सेठ साहब का अभिनंदन हो रहा है। भयंकर गर्मी है, लू चल रही है। बिजली गायब है, अत: पंखे भी बंद हैं; फिर भी सेठ साहब वहाँ