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चौथा प्रवचन मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्र में प्रतिपादित विषय-वस्तु की चर्चा चल रही है। इसके प्रथम अधिकार में मंगलाचरण, पंचपरमेष्ठी का स्वरूप, पढ़ने-सुनने योग्य शास्त्र, वक्ता-श्रोता का स्वरूप एवं ग्रन्थ की प्रामाणिकता आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
दूसरे अधिकार में कर्मबन्धन का निदान, घाति-अघाति कर्म और उनके कार्य, चार प्रकार के बंध, कर्मों की सत्ता और उनके उदय से होने वाली विभिन्न अवस्थाओं का विशद निरूपण किया गया है।
तीसरे अधिकार में अबतक संसार के दुःख और उनके मूल कारणों की कर्मों की अपेक्षा तथा एकेन्द्रियादि पर्यायों और चारगतियों की अपेक्षा से गहरी मीमांसा की गई है। अब दुःखों का सामान्य स्वरूप स्पष्ट किया जा रहा है। इसके बाद मोक्षसुख और उसकी प्राप्ति के उपाय की चर्चा करेंगे।
'दुःख का सामान्य स्वरूप' इस मोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्र का एक ऐसा प्रकरण है कि जो अन्यत्र दुर्लभ है। इसमें पण्डितजी चार प्रकार की इच्छाओं की चर्चा करते हैं; जो इसप्रकार हैं ह्र
१. विषय, २. कषाय, ३. पाप का उदय और ४. पुण्य का उदय ।
पाँच इन्द्रियों के माध्यम से देखने-जानने की इच्छा का नाम विषय है और कषायभावों के अनुसार कार्य करने की इच्छा का नाम कषाय है।
यद्यपि इन विषय और कषाय नामक इच्छाओं में अन्य कोई पीड़ा नहीं है; तथापि जबतक इन्द्रियविषयों का ग्रहण नहीं होता अर्थात् देखनाजानना नहीं होता और अपनी इच्छा के अनुसार कार्य नहीं होता; तबतक यह जीव अत्यन्त व्याकुल रहता है। __पापकर्म के उदय से प्राप्त अनिष्ट संयोगों को दूर करने की इच्छा का नाम पाप का उदय है। जबतक वे अनिष्ट संयोग दूर न हों, तबतक यह जीव महा व्याकुल रहता है।
चौथा प्रवचन
उक्त तीन प्रकार की इच्छाओं के अनुसार प्रवर्तन करने की इच्छा का नाम पुण्य का उदय है। पुण्य के उदय के अनुसार प्राप्त अनेकानेक अनुकूलताओं को एक साथ भोगना संभव नहीं हो पाता; इस कारण पुण्य के उदयवाले जीव भी व्याकुल रहते हैं।
सम्पूर्ण जगत उक्त इच्छाओं से पीड़ित हो रहा है। दुःख का कारण एकमात्र ये इच्छायें हैं, बाह्य संयोग नहीं। संयोगी परपदार्थ तो पद्रव्य हैं। जब एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता-धर्ता ही नहीं है तो फिर पद्धव्य जीव को सुखी-दुःखी कैसे कर सकते हैं? ___ एक ओर भरतचक्रवर्ती के पास अपार भोगसामग्री थी; पर वह भोगसामग्री उनका अहित नहीं कर पाई; वहीं दूसरी ओर मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि के पास रंचमात्र भी भोगसामग्री नहीं होती, फिर भी उनके आत्मा का कल्याण नहीं हो पाता । इससे सहज ही सिद्ध है कि बाह्यसामग्री हित-अहित करनेवाली नहीं है; आत्मा का अहित करनेवाली इच्छाएँ ही हैं। यही कारण है कि इच्छाओं के निरोध को तप कहा गया है।
लोक में तीव्र कषाय से जिसे बहुत इच्छाएँ हैं, उन्हें दुःखी कहते हैं और मन्दकषाय से जिन्हें कम इच्छाएँ हैं, उन्हें सुखी कहते हैं; परन्तु सत्य तो यह है कि बहुत इच्छावाले जीव बहुत दुःखी हैं और कम इच्छावाले जीव कम दुःखी हैं; पर दुःखी तो दोनों ही हैं, सुख तो दोनों में से किसी को भी नहीं है।
इन इच्छाओं की उत्पत्ति मिथ्यात्व, अज्ञान और असंयम के कारण होती है तथा आकुलतारूप होने से ये इच्छाएँ दुःखरूप ही हैं।
विषय और कषायरूप इच्छाओं की दुःखरूपता स्पष्ट करते हुये पण्डित दौलतरामजी देव-स्तुति में लिखते हैं ह्र आतम के अहित विषय-कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय।
उक्त पंक्ति में यह कहा गया है कि आत्मा का अहित करनेवाले मूलतः विषय और कषायें हैं।