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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार आयु, नाम और गोत्र कर्म के उदय में होनेवाले अनुकूल-प्रतिकूल संयोग भी मोहकर्म के सद्भाव में दुःख के ही कारण बनते हैं।
वैसे तो कोई भी संयोग-वियोग सुख-दुःख के कारण नहीं हैं; पर मोह के उदय में महान दुःखदायी हो जाते हैं।
इसप्रकार अब तक यह समझाया गया है कि संसारी जीवों के कर्मोदय की अपेक्षा से मिथ्यादर्शनादि के निमित्त से दुःख ही दुःख पाया जाता है और अब यह समझाते हैं कि पर्याय अपेक्षा से एकेन्द्रियादि जीव चारों गतियों में भ्रमण करते हुए अनन्त दुःख उठा रहे हैं। ___ एकेन्द्रियादि जीवों के दुःखों का निरूपण करते हुये भी यही बताते हैं कि वे जीव किस अवस्था में किस कर्म के उदय में किसप्रकार के दुःख भोग रहे हैं।
एकेन्द्रियादि जीवों के दुःखों की चर्चा आरंभ करते हुये पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं ह्र
"इस संसार में बहुत काल तो एकेन्द्रिय पर्याय में ही बीतता है। इसलिये अनादि ही से तो नित्यनिगोद में रहना होता है; फिर वहाँ से निकलना ऐसा है कि जैसे भाड़ में भुंजते हुए चने का उचट जाना ।
इसप्रकार वहाँ से निकलकर अन्य पर्याय धारण करे तो त्रस में तो बहुत थोड़े ही काल रहता है; एकेन्द्रिय में ही बहुत काल व्यतीत करता है।
वहाँ इतरनिगोद में बहुत काल रहना होता है तथा कितने काल तक पृथ्वी, अप, तेज, वायु और प्रत्येक वनस्पति में रहना होता है । नित्यनिगोद से निकलकर बाद में त्रस में रहने का उत्कृष्ट काल तो साधिक दो हजार सागर ही है तथा एकेन्द्रिय में रहने का उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परावर्तन मात्र है और पुद्गल परावर्तन का काल ऐसा है कि जिसके अनन्तवें भाग में भी अनन्त सागर होते हैं। इसलिए इस संसारी के मुख्यतः एकेन्द्रिय पर्याय में ही काल व्यतीत होता है।
वहाँ एकेन्द्रिय के ज्ञान-दर्शन की शक्ति तो किंचित्मात्र ही रहती है।
तीसरा प्रवचन एक स्पर्शन इन्द्रिय के निमित्त से हुआ मतिज्ञान और उसके निमित्त से हुआ श्रुतज्ञान तथा स्पर्शन इन्द्रियजनित अचक्षुदर्शन ह्र जिनके द्वारा शीतउष्णादिक को किंचित् जानते-देखते हैं। ज्ञानावरण-दर्शनावरण के तीव्र उदय से इससे अधिक ज्ञान-दर्शन नहीं पाये जाते और विषयों की इच्छा पायी जाती है, जिससे महादुःखी हैं।
तथा दर्शनमोह के उदय से मिथ्यादर्शन होता है; उससे पर्याय का ही अपनेरूप श्रद्धान करते हैं, अन्य विचार करने की शक्ति ही नहीं है।
तथा चारित्रमोह के उदय से तीव्र क्रोधादिक-कषायरूप परिणमित होते हैं; क्योंकि उनके केवली भगवान ने कृष्ण, नील, कापोत ये तीन अशुभ लेश्यायें ही कही हैं और वे तीव्र कषाय होने पर ही होती हैं। ____ वहाँ कषाय तो बहुत हैं और शक्ति सर्व प्रकार से महाहीन है; इसलिए बहुत दुःखी हो रहे हैं, कुछ उपाय नहीं कर सकते।'
तथा ऐसा जानना कि जहाँ कषाय बहुत हो और शक्तिहीन हो, वहाँ बहुत दुःख होता है और ज्यों-ज्यों कषाय कम होती जाये तथा शक्ति बढ़ती जाये त्यों-त्यों दुःख कम होता है। परन्तु एकेन्द्रियों के कषाय बहुत
और शक्ति हीन; इसलिये एकेन्द्रिय जीव महादुःखी हैं। उनके दुःख वे ही भोगते हैं और केवली जानते हैं।
जैसे ह्र सन्निपात के रोगी का ज्ञान कम हो जाये और बाह्य शक्ति की हीनता से अपना दुःख प्रगट भी न कर सके, परन्तु वह महादुःखी है; उसीप्रकार एकेन्द्रिय का ज्ञान तो थोड़ा है और बाह्य शक्तिहीनता के कारण अपना दुःख प्रगट भी नहीं कर सकता, परन्तु महादुःखी है।"
इसप्रकार हम देखते हैं कि निगोद भी तिर्यंचगति में ही आता है; जहाँ एक श्वांस में अठारह बार जन्म और अठारह बार मरण होता
१. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ-६२-६३ २. वही, पृष्ठ-६३-६४