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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार वह पागल उसे अपने आधीन मानता है; उसकी पराधीन क्रिया होती है, उससे वह महा खेद-खिन्न होता है।
उसीप्रकार इस जीव को कर्मोदय ने शरीर सम्बन्ध कराया। यह जीव उस शरीर को अपना अंग जानकर अपने को और शरीर को एक मानता है। वह शरीर कर्म के आधीन कभी कृष होता है, कभी स्थूल होता है, कभी नष्ट होता है, कभी नवीन उत्पन्न होता है ह्र इत्यादि चरित्र होते हैं। यह जीव उसे अपने आधीन मानता है; उसकी पराधीन क्रिया होती है; उससे महाखेदाखिन्न होता है।
तथा जैसे ह्र जहाँ वह पागल ठहरा था; वहाँ मनुष्य, घोड़ा, धनादिक कहीं से आकर उतरे; वह पागल उन्हें अपना जानता है। वे तो उन्हीं के आधीन कोई आते हैं, कोई जाते हैं, कोई अनेक अवस्थारूप परिणमन करते हैं; वह पागल उन्हें अपने आधीन मानता है, उनकी पराधीन क्रिया हो तब खेदखिन्न होता है।
उसीप्रकार यह जीव जहाँ पर्याय धारण करता है; वहाँ स्वयमेव पुत्र, घोड़ा, धनादिक कहीं से आकर प्राप्त हए: यह जीव उन्हें अपना जानता है। वे तो उन्हीं के आधीन कोई आते हैं, कोई जाते हैं, कोई अनेक अवस्थारूप परिणमन करते हैं; यह जीव उन्हें अपने आधीन मानता है, और उनकी पराधीन क्रिया हो तब खेदखिन्न होता है।"
इसप्रकार दर्शनमोहनीय कर्म अर्थात् मिथ्यात्व के उदय से यह जीव अनन्त दुःख प्राप्त करता रहा है।
चारित्र मोहनीय के उदय में २५ कषायें होती हैं। कषायों के कारण इस जीव की कैसी दुर्दशा होती है ह यह किसी से छुपी नहीं है। पण्डितजी ने इसका बहुत मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया है।
क्रोध के उदय में आँखें लाल हो जाती हैं, गालियाँ बकने लगता है, माँ-बहिन का भी ख्याल नहीं रखता है; मरने-मारने पर उतारू हो जाता है। १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ-५१-५२
तीसरा प्रवचन
यदि कोई इष्टजन या पूज्य पुरुष बीच में आ जाये तो उन्हें भी भलाबुरा कहने लगता है, कुछ विचार नहीं करता । यदि अन्य का बुरा न हो तो बहुत दुःखी होता है और अपने अंगों का घात करने लगता है, विषादि का भक्षण कर मर जाता है। ___ मान कषाय के कारण औरों को नीचा और स्वयं को ऊँचा दिखाने की इच्छा होती है, तदर्थ अनेक उपाय करता है। मरने के बाद हमारा यश होगा ह्र ऐसा सोचकर मरकर भी अपनी महिमा बढ़ाना चाहता है। सफल न होने पर बहुत दुःखी होता है और विषादि खाकर मर जाता है। ___इसीप्रकार २५ कषायों के उदय में मरणपर्यन्त दुःख भोगने का चित्रण टोडरमलजी ने इस तीसरे अधिकार में किया है; जो मूलतः पठनीय है। विस्तारभय से यहाँ प्रत्येक की चर्चा करना संभव नहीं है।
जरा विचार करो कि कषायों की तीव्रता का कितना दुःख है कि उससे बचने के लिये यह जीव मरण की शरण खोजता है, मरण की शरण में चला जाता है। निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुये पण्डितजी लिखते हैं ह्र
“यहाँ ऐसा विचार आता है कि यदि इन अवस्थाओं में न प्रवर्ते तो क्रोधादिक पीड़ा उत्पन्न करते हैं और इन अवस्थाओं में प्रवर्ते तो मरणपर्यन्त कष्ट होते हैं। वहाँ मरणपर्यन्त कष्ट तो स्वीकार करते हैं, परन्तु क्रोधादिक की पीड़ा सहना स्वीकार नहीं करते। इससे यह निश्चित हुआ कि मरणादिक से भी कषायों की पीड़ा अधिक है।"
इसप्रकार यह जीव कषायभावों से पीड़ित हुआ निरन्तर अनन्त दुःखी होता रहता है।
इसप्रकार यहाँ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहनीय कर्म के उदय में होनेवाले दुःखों का संक्षेप में वर्णन किया। इसीप्रकार अन्तराय कर्मोदय से दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में होनेवाली रुकावट व वेदनीय, १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ-५५