________________
मोक्षमार्गप्रकाशक का सार
२
जिन्होंने शास्त्रों के साथ-साथ आत्मा को भी पढ़ा हो; पर ऐसे पण्डित मिलना अत्यन्त दुर्लभ हैं कि जिन्होंने शास्त्रों को पढ़ा हो, आत्मा को पढ़ा हो, आत्मानुभव किया हो और इस जगत को भी पढ़ा हो । पण्डित टोडरमलजी उन पण्डितों में हैं; जिन्होंने शास्त्रों को पढ़ा था, आत्मा को पढ़ा था, आत्मा का अनुभव किया था और जगत को भी पढ़ा था।
इसका प्रमाण मोक्षमार्गप्रकाशक का २२० वाँ पृष्ठ है, जिस पर उन्होंने लौकिकजनों की धर्माराधना का विकृत चित्र प्रस्तुत किया है।
उन्होंने लिखा है ह्न “अब, इनके धर्म का साधन कैसे पाया जाता है। सो विशेष बतलाते हैं
वहाँ कितने ही जीव कुलप्रवृत्ति से अथवा देखा-देखी लोभादि के अभिप्राय से धर्म साधते हैं, उनके तो धर्मदृष्टि ही नहीं है।
यदि भक्ति करते हैं तो चित्त तो कहीं है, दृष्टि घूमती रहती है और मुख से पाठादि करते हैं व नमस्कारादि करते हैं; परन्तु यह ठीक (इस बात का पता) नहीं है कि मैं कौन हूँ, किसकी स्तुति करता हूँ, किस प्रयोजन के अर्थ (लिये) स्तुति करता हूँ, पाठ में क्या अर्थ है, सो कुछ पता नहीं है।
तथा कदाचित् कुदेवादिक की भी सेवा करने लग जाता है; वहाँ सुदेवगुरु-शास्त्रादि व कुदेव-गुरु-शास्त्रादिक की विशेष पहिचान नहीं है। तथा यदि दान देता है तो पात्र-अपात्र के विचार रहित जैसे अपनी प्रशंसा हो, वैसे दान देता है।
तथा तप करता है तो भूखा रहकर महंतपना हो, वह कार्य करता है; परिणामों की पहिचान नहीं है।
तथा व्रतादिक धारण करता है तो वहाँ बाह्य क्रिया पर दृष्टि है; सो भी कोई सच्ची क्रिया करता है, कोई झूठी करता है; और जो अन्तरंग रागादिभाव पाये जाते हैं, उनका विचार ही नहीं है। तथा बाह्य में रागादि के पोषण के साधन करता है।
पहला प्रवचन
तथा पूजा - प्रभावनादि कार्य करता है तो वहाँ जिसप्रकार लोक में बड़ाई हो व विषय-कषाय का पोषण हो; उसप्रकार कार्य करता है। तथा बहुत हिंसादिक उत्पन्न करता है। सो यह कार्य तो अपने तथा अन्य जीवों के परिणाम सुधारने के अर्थ (लिये) कहे हैं। तथा वहाँ किंचित् हिंसादिक भी उत्पन्न होते हैं, परन्तु जिसमें थोड़ा अपराध हो और गुण अधिक हो; वह कार्य करना कहा है। सो परिणामों की तो पहिचान नहीं है और यहाँ अपराध कितना लगता है, गुण कितना होता है ह्र ऐसे नफा-टोटे का ज्ञान नहीं है व विधि अविधि का ज्ञान नहीं है।
तथा शास्त्राभ्यास करता है तो वहाँ पद्धतिरूप प्रवर्तता है। यदि वाँचता है तो औरों को सुना देता है, यदि पढ़ता है तो आप पढ़ जाता है, सुनता है तो जो कहते हैं, वह सुन लेता है; परन्तु जो शास्त्राभ्यास का प्रयोजन है, उसे आप अन्तरंग में अवधारण नहीं करता ।
ह्न इत्यादि धर्मकार्यों के मर्म को नहीं पहिचानता ।
कितने तो जिसप्रकार कुल में बड़े प्रवर्तते हैं; उसीप्रकार हमें भी करना; अथवा दूसरे करते हैं; वैसा हमें भी करना; व ऐसा करने से हमारे लोभादिक की सिद्धि होगी ह्न इत्यादि विचार सहित अभूतार्थ धर्म को साधते हैं।
तथा कितने ही जीव ऐसे होते हैं जिनके कुछ तो कुलादिरूप बुद्धि है, कुछ धर्मबुद्धि भी है; इसलिये पूर्वोक्त प्रकार का धर्म का साधन करते हैं।"
उस समय अज्ञानी जगत में धर्म के नाम पर किसप्रकार की प्रवृत्तियाँ देखी जाती थीं; उनका यह सजीव चित्रण है।
एक ही पृष्ठ में पण्डितजी ने तथाकथित भक्तों, दानियों, तपस्वियों, व्रतियों, पूजा-प्रभावना करनेवालों और शास्त्रों का अभ्यास करनेवालों का कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया है।
आश्चर्य की बात तो यह है कि आज भी समाज में उसीप्रकार की प्रवृत्तियाँ देखने में आ रही हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि अज्ञानियों की