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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषायें होती हैं; इसकारण हमें जो भी पुरुषार्थ करना है, वह सब मोहकर्मोदय से होनेवाले भावों का अभाव करने के लिये करना है।
पण्डित श्री टोडरमलजी ने कर्मबंध संबंधी उक्त प्रकरण पर संक्षिप्त में प्रकाश डालकर लिखा है कि इसकी विस्तार से चर्चा आगे चलकर कर्माधिकार में करेंगे। इसका आशय यह है कि वे इस मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रंथ में कर्माधिकार के नाम से एक स्वतंत्र अधिकार लिखना चाहते थे।
यद्यपि यह बात परम सत्य है कि यदि यह ग्रंथ पूरा हो गया होता तो उसमें सबकुछ नहीं तो बहुत कुछ तो होता ही; पर जो कुछ अभी उपलब्ध है, वह भी कुछ कम नहीं है।
हम प्राप्त मोक्षमार्गप्रकाशक का तो स्वाध्याय करें नहीं और जो लिखा ही नहीं जा सका, उसके लिये, दुःख प्रकट करें ह यह तो वैसा ही है कि मरे पुत्र की बड़ी-बड़ी आँखें।
बुन्देलखण्ड में कहावत है कि लोग जो पुत्र जिन्दा है, उसकी तो सही ढंग से देखभाल करते नहीं; पर जो मर गया, उसके गीत गाते रहते हैं कि वह ऐसा था, वह वैसा था।
अतः हमारा तो यही अनुरोध है कि समय निकालकर इस उपलब्ध मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रंथ का स्वाध्याय गहराई से अवश्य करें।
दूसरे अधिकार की विषयवस्तु की चर्चा चल रही है, जिसमें अभी तक अनादि से होनेवाले कर्मबंधन एवं उनके उदय में होनेवाले शरीरादि नोकर्मों का संयोग और अज्ञानादि तथा मिथ्यात्वादिभावों से आगामी कर्मबंधन की चर्चा हुई। अब यह बताते हैं कि ज्ञानावरणादि कर्मों के उदय में इस जीव की क्या दुर्दशा होती है ?
यद्यपि यह भगवान आत्मा सर्वज्ञस्वभावी है, एक समय में लोकालोक के सभी पदार्थों को उनके गुण पर्यायों सहित देखे-जाने और प्रतिसमय देखता ही रहे, जानता ही रहे ह ऐसी शक्ति से सम्पन्न है;
दूसरा प्रवचन तथापि ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के उदय के निमित्त से इस आत्मा की ऐसी स्थिति हो रही है कि यह जड़ पत्थर जैसा हो गया है। ___ यदि दर्शनावरण और ज्ञानावरण के अल्प क्षयोपशम से थोड़ा बहुत देखता-जानता है तो, उसमें पचासों शर्ते लगी रहती हैं। आँखों के बिना देख नहीं सकता, कानों के बिना सुन नहीं सकता; आँखें भी हों तो प्रकाश चाहिये। सभी शर्ते पूरी हो जावें, तो भी अकेले पुद्गल को देखजान सकता है; वह भी सभी पुद्गलों को नहीं, उनके अनन्तवें भाग को, क्षेत्र-काल सम्बन्धी भी बहुत मर्यादायें हैं। समझ लीजिये एकेन्द्रियादि संसारी जीवों के दर्शन ज्ञान मात्र नाम के ही शेष रह गये हैं। निगोदिया जीवों के निरावरण होने से ज्ञान-दर्शन का मात्र स्वाभावांश ही रहता है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि ज्ञानावरण के उदय से जो अज्ञान और ज्ञानावरण के क्षयोपशम से जो ज्ञान है; ये दोनों ही आगामी कर्मों के बंधने में निमित्त नहीं है। औदयिक अज्ञान तो बंध का कारण है ही नहीं, पर जो क्षयोपशमिक ज्ञान है, वह भी स्वभाव का अंश होने से बंध का कारण नहीं है।
वस्तुतः बात यह है कि दर्शन-ज्ञान गुण और उनका परिणमन बंध का कारण नहीं है, बंध का कारण तो एकमात्र मोह के उदय में होने वाले मिथ्यात्वादि चार भाव ही हैं।
अरे भाई ! इस बात को हिन्दी भाषा में लिखी गई पण्डित की बात समझकर उड़ा मत देना, पूरी गंभीरता से समझना और स्वीकार करना । तेरा कल्याण अवश्य होगा। ___ इसीप्रकार अंतराय और अघातिया कर्मों के सन्दर्भ में भी समझ लेना चाहिये। दूसरे अधिकार में पण्डितजी ने प्रत्येक कर्म के उदय में होने वाली इस जीव की अवस्थाओं (दुर्दशाओं) का वर्णन विस्तार से किया, जो मूलतः पठनीय है। विस्तारभय से उक्त सभी की चर्चा करना यहाँ संभव नहीं है।