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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार ठीक करने के प्रयास की बात करते हैं। जिन योगों के रहते हुए केवलज्ञान हो जाता है, अनन्तसुख हो जाता है; उन योगों ने तेरा क्या बिगाड़ा है? जिस मिथ्यात्व को छोड़े बिना धर्म का आरंभ भी नहीं होता, रंचमात्र भी सुख-शांति नहीं मिलती; उस मिथ्यात्व को तो छोड़ने की तो बात नहीं करता। क्या हो गया है इस जगत को ?
अरे भाई! मिथ्यात्व को छोड़े बिना चतुर्थ गुणस्थान नहीं होता, पर अविरति तो पाँचवें-छठवें गुणस्थान में जाती है। इसीप्रकार प्रमाद सातवें गुणस्थान में, कषाय ग्यारहवें/बारहवें गुणस्थान में और योग चौदहवें गुणस्थान में जाते हैं। ___बंध के और उसके कारणों के अभाव का क्रम तो यह है, पर यह अज्ञानी जगत योग साधना के नाम पर मन-वचन-कायरूप जड़ का कर्ता बनता है। जबतक आत्मा जड़ का, पर का, पररूप जड़ का कर्त्ताभोक्ता बनता रहेगा, तबतक तो मिथ्यात्व ही नहीं जावेगा, अन्य अविरति आदि की तो बात ही क्या करना।
बंध चार प्रकार का होता है ह्न प्रदेशबंध, प्रकृतिबंध, स्थितिबंध और अनुभाग बंध।
पौद् गलिक कार्माण वर्गणाओं का कर्मरूप परिणमित होकर आत्मप्रदेशों से एकक्षेत्रावगाहरूप से बंधना प्रदेशबंध है और कर्मस्कंधों का मतिज्ञानावरणादि कर्मप्रकृतियोंरूप से विभक्त होना प्रकृतिबंध है।
इन प्रदेश और प्रकृतिबंध में मन-वचन-कायरूप तीन योगों के निमित्त से होने वाला आत्मप्रदेशों का परिस्पन्द (हलन-चलन) निमित्त होता है।
भगवान आत्मा के साथ उक्त कर्मप्रकृतियों का संबंध कब तक रहेगा ह्र यह सुनिश्चित होना स्थितिबंध है और उन कर्मप्रकृतियों का रस परिपाक किस रूप में होगा ह्न यह सुनिश्चित होना अनुभागबंध है।
ये स्थिति और अनुभागबंध कषायों (मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय) से होते हैं। जब मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषायों
दूसरा प्रवचन का पूर्णतः अभाव हो जाता है; तब केवली भगवान के १३वें गुणस्थान में योग से होनेवाले प्रकृति और प्रदेशबंध तो होते हैं, पर उन प्रकृति और प्रदेशों में मिथ्यात्वादि कषायभावों का अभाव होने से स्थिति और अनुभाग नहीं पड़ते, इसकारण वे कर्मपरमाणु अगले समय ही खिर जाते हैं; उनका कोई भी अच्छा-बुरा फल आत्मा को प्राप्त नहीं होता। अतः वह एकप्रकार से निरर्थक ही है। उक्त आस्रव को ईर्यापथ आस्रव कहते हैं और कषायों से होनेवाले आस्रव को संसार का बढ़ानेवाला होने से साम्प्रायिक आस्रव कहते हैं। इस साम्प्रायिक आस्रवपूर्वक होनेवाला बंध ही वास्तविक बंध है।
मिथ्यात्वादि भावों से बंधे कर्म अपनी स्थिति (काल की मर्यादा) के अनुसार सत्ता में रहते हैं और आबाधाकाल पूर्ण होने पर उदय में आना आरंभ होते हैं, और तबतक आते रहते हैं कि जबतक उनकी स्थिति पूर्ण नहीं हो जाती। उदय में आते हुये वे कर्म अपनी अनुभाग शक्ति के अनुसार संयोग और संयोगी भावों के रूप में फलते हैं।
कर्मों के बंध, उदय और सत्ता की चर्चा के उपरान्त अब यह स्पष्ट करते हैं कि बंधते समय तो कोई कर्म फल निष्पन्न करते नहीं और सत्ता में पड़े कर्म पृथ्वी के ढेले के समान अकार्यकारी हैं; मात्र उदयकाल में ही वे निमित्तरूप से कार्यकारी होते हैं।
उदयकाल में भी अघातिया कर्मों के मात्र संयोगों के रूप में फलने से वे आगामी कर्मबंधनों के कर्ता नहीं हैं, निमित्त भी नहीं हैं। उनकी संतति नहीं चलती, वे तो संयोगरूप फल में निमित्त होकर नष्ट हो जाते हैं।
इसीप्रकार घाति कर्मों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का उदय और इनके उदय से होनेवाले आत्मा के औदयिकभाव बंध के कारण नहीं हैं।
इसप्रकार मोहनीय कर्म को छोड़कर शेष कर्मों का उदय और उनके निमित्त से होनेवाले संयोग और संयोगीभावरूप आत्मपरिणाम आगामी बंध के निमित्तकारण भी न होने से उदय में आकर खिर जानेवाले हैं।
एकमात्र मोहकर्म ही ऐसा कर्म है कि जिसके उदय के निमित्त में