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३. संसारभावना दुखमय निरर्थक मलिन जो सम्पूर्णतः निस्सार है। जगजालमय गति चार में संसरण ही संसार है। भ्रमरोगवश भव-भव भ्रमण संसार का आधार है। संयोगजा चिद्वत्तियाँ ही वस्तुतः संसार है।
संयोग हों अनुकूल फिर भी सुख नहीं संसार में। संयोग को संसार में सुख कहें बस व्यवहार में॥ दुख-द्वन्द हैं चिद्वृत्तियाँ संयोग ही जगफन्द हैं। निज आतमा बस एक ही आनन्द का रसकन्द है।
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