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जिनधर्म-विवेचन एवं युक्ति से सिद्ध तथा पूर्वापर-अविरुद्ध होता है, उसे ही शास्त्र/आगम कहते हैं। इसलिए जिनेन्द्रकथित शास्त्रों पर श्रद्धान करना अन्धविश्वास अथवा अज्ञान नहीं है।"
पुनः यह प्रश्न भी पूँछा जा सकता है कि जब सामान्य नेता (मनुष्य) भी अपने अनुयायिओं में यदि किंचित भी पक्षपात करता है तो उसकी महानता में कलंक लग जाता है। तो क्या जिनेन्द्रकथित शास्त्रों का ही श्रद्धान करने में क्या पक्षपात की गन्ध नहीं है?
उत्तर - देखो! जिनेन्द्रकथित वस्तुव्यवस्था में किसी भी प्रकार पक्षपात की गन्ध नहीं है; क्योंकि जिनेन्द्र भगवान लोक के कर्ता या नियन्ता नहीं है, उन्होंने अपने अनन्त केवलज्ञान में जैसा वस्तु का स्वरूप देखा है, वैसा ही तो बताया है। यदि हम उन्हें या किसी अन्य ईश्वर को जगत् का निर्माता मानें तो पक्षपात की गन्ध अवश्य आएगी।
देखो! विश्व में तो मनुष्यों की रचना में अनेक विविधताएँ/विपरीतताएँ प्रत्यक्ष अनुभव में आ रही हैं ह्र १. कुछ मनुष्य धनवान हैं तो कुछ धनहीन । २. कुछ जन्म से मरण पर्यंत निरोग रहते हैं तो कुछ जन्म से ही अनेक रोगों से पीड़ित रहते हैं। ३. कुछ भगवान के भक्त हैं तो कुछ भगवान के भक्तों और भगवान के भी विरोधी । ४. कोई सज्जनोत्तम हैं तो कोई सज्जनों का ही नाश करने को तत्पर ।
अतः यदि समतास्वभावी भगवान यदि इस विश्व को बनानेवाले माने जाएँ तो उनकी यह पक्षपातपूर्ण रचना अत्यन्त अशोभनीय प्रतीत होती है। ___ इस सन्दर्भ में आपका यह उत्तर सम्भव है कि वे भगवान प्रत्येक मनुष्य को उनके अपने-अपने पूर्वोपार्जित पाप-पुण्य के अनुसार बाह्य में अनुकूलताएँ तथा प्रतिकूलताएँ देते हैं। लेकिन यदि मनुष्य के पाप-पुण्य के अनुसार ही भगवान फल देते हैं तो भगवान अपनी इच्छा के अनुसार फल देने में समर्थ नहीं है; ऐसा अर्थ प्राप्त होता है। इस कथन से तो भगवान के कर्तापने की बात ही समाप्त हो जाती है; हम भी यही कहना चाहते हैं।
विश्व-विवेचन
४. प्रश्न - लेकिन आपके इसप्रकार के कथन से हमारा जिनमन्दिर जाना और जिनेन्द्र भगवान की भक्ति-पूजा आदि करना सब बन्द हो जाएगा। हमें मन्दिर जाना चाहिए अथवा नहीं, यह भी स्पष्ट कीजिए?
उत्तर - भाई साहब! हमारा आपका मन्दिर जाना सार्थक होवे तथा उसका यथार्थ प्रतिफल प्राप्त हो, इस भावना से ही यह सब कथन हो रहा है। भगवान के सच्चे स्वरूप का एवं कार्यों का सत्य निर्णय हो जाने पर उनकी भक्ति भी ज्ञानपूर्वक होती रहेगी। विश्व और भगवान के सम्बन्ध का यथार्थ निर्णय हो जाने पर जिनमन्दिर में जाने का भाव सच्चा और अच्छा ही होगा।
भगवान के पास भय से अथवा भोग्य पदार्थों की भीख के उद्देश्य से जाना अलग बात है और शास्त्राधार सहित तर्क और युक्तिपूर्वक उनके स्वरूप को सत्यार्थ जानकर सहज भक्ति से जाना अलग बात है। प्रथम पद्धति से मनुष्य को न तो निर्भयता प्राप्त होती है और न इच्छित भोग्य पदार्थों की प्राप्ति होती है। मिथ्या कल्पना करने से मात्र पापकर्म का ही बन्ध नियम से होता है।
द्वितीय पद्धति से मनुष्य नियम से निर्भय होता है। भय का निकल जाना ही स्वयं सुख है। निर्भय मनुष्य, निशंकता से सत्यासत्य का निर्णय करने में समर्थ होता है। ज्ञानसहित निर्भय परिणामों से पुण्यकर्म का सहज आस्रव-बन्ध होता रहता है तथा यथासमय पुण्यकर्म के उदय से सांसारिक भोग्यपदार्थ भी बिना माँगे ही मिलते रहते हैं; अतः परीक्षाप्रधान पद्धति ही धर्म के लिए अत्यन्त आवश्यक है।
५. प्रश्न - जीवादि छह द्रव्यों को क्या आप तर्क के आधार से भी सिद्ध कर सकते हो? यदि हाँ तो सबसे पहले जीवद्रव्य को सिद्ध कीजिए।
उत्तर - जगत् में अनेक प्रकार के कार्य देखने-जानने को मिलते हैं, आपने देखा होगा, उनमें समझनेरूप कार्य हमें जीवों में ही मिलता है। स्कूल-कॉलेज में तो समझने का कार्य विद्यार्थी करते ही हैं। अन्य स्थानों पर भी समझने तथा समझाने का कार्य चलता रहता है। घर में पुत्र, पिता
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