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________________ विश्व-विवेचन जिनधर्म प्रवेशिका में सर्वप्रथम १. प्रश्न है - विश्व किसे कहते हैं? उत्तर - (जीवादि) छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं। २. प्रश्न - लोक और अलोक दोनों को ही विश्व कहना अथवा मात्र लोक को, स्पष्ट कीजिए? उत्तर - लोक और अलोक दोनों ही विश्व के अन्तर्गत आते हैं, मात्र लोक नहीं। मात्र लोक को ही विश्व माना जाए तो हमने आकाश के एक अल्पभाग को ही विश्व मान लिया और बहभाग आकाशद्रव्य को विश्व में लिया ही नहीं, यह प्रसंग उपस्थित हो जाएगा, जो वस्तुस्वरूप के अनुकूल नहीं है। विश्व की परिभाषा में छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहा गया है; अतः पूर्ण आकाश को विश्व में समाहित करना योग्य है। इस प्रकार लोक और अलोक दोनों ही विश्व में सम्मिलित होते हैं। हमें ऐसा नहीं समझना चाहिए कि अलोकाकाश में भी छह द्रव्य होते हैं; क्योंकि वहाँ तो मात्र आकाशद्रव्य ही है। यद्यपि शास्त्रों में लोक या लोकाकाश की मुख्यता से ही अधिकतर वर्णन मिलता है; अतः छह द्रव्यों के समूह को लोक/विश्व कहा जाता है। ___ आचार्य कुन्दकुन्द ने बारसाणुवेक्खा नामक कृति में इस विषय को गाथा क्रमांक ३८ में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहा है - जीवादिपयद्राणं, समवाओ सो णिरुच्चए लोगो। तिविहो हवेई लोगो, अहमज्झिमउडभेएण। जीव आदि पदार्थों के समवाय को लोक कहते हैं। लोक तीन प्रकार का है - अधोलोक, मध्यलोक व ऊर्ध्वलोक। कोई पूछ सकता है - हमें जिनधर्म समझना है। यहाँ विश्व को समझने से क्या प्रयोजन है? हमें व्यर्थ का काम नहीं करना है। विश्व-विवेचन भाईसाहब! यह काम व्यर्थ का नहीं है। जब तक हमें “इस विश्व का कोई कर्ता-हर्ता नहीं है, यह विश्व स्वयमेव है, अनादि से है और अनन्त कालपर्यंत स्वयमेव बना रहेगा' - ऐसा पक्का विश्वास या भरोसा नहीं होता है; तब तक जीव को काल्पनिक सर्व सामर्थ्यवान् भगवान का भय बना रहता है; इसलिए इस व्यर्थ के भय को भगाने के लिए विश्व किसी का बनाया हुआ नहीं है - ऐसी श्रद्धा अवश्य होना चाहिए। जीवादि छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं - ऐसा निर्णय होने से हम निर्भय रहते हैं। जो जीव, जीवन में निर्भय नहीं होगा; वह धर्म करने के लिए अथवा धर्म जानने के लिए भी समर्थ नहीं हो सकता। धर्म समझने के लिए सबसे पहले निर्भय होना अत्यन्त आवश्यक है। भयभीत रहनेवाला व्यक्ति धर्म कैसे करेगा? धर्म कैसे जानेगा? इसलिए विश्व का यथार्थ ज्ञान करना आवश्यक है। इस विश्व को जगत, लोक, दुनिया और ब्रह्माण्ड आदि नामों से भी जाना जाता है। इस विश्व में जाति अपेक्षा छह द्रव्य हैं; उनके नाम - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल है। इसप्रकार विश्व को जानना व्यर्थ का काम नहीं है, बल्कि अनिवार्य काम है। ३. प्रश्न - आप तो शास्त्र के आधार पर कह रहे हो। क्या शास्त्र के आधार से वस्तु-व्यवस्था मानना अज्ञान और अन्धविश्वास नहीं है? उत्तर - वास्तविक बात तो यह है कि जिनेन्द्र भगवान सर्वज्ञ एवं वीतरागी हैं, उन्होंने जो वस्तु का स्वरूप देखा-जाना है, वही अपनी दिव्यध्वनि में कहा है, वही युक्ति एवं तर्क से भी सिद्ध होता है तथा जो विषय, तर्क तथा युक्ति से सिद्ध होता है, उसे ही शास्त्रों में कहा जाता है। आपको लगता है कि शास्त्र पर श्रद्धा करना भी अज्ञान और अन्धविश्वास है; पर यह बात सत्य नहीं है। हम भी यही कहते हैं कि सत्य को जानने के लिए परीक्षाप्रधानी होना आवश्यक है। जिनेन्द्रकथित शास्त्र की परिभाषा ही यह है कि "जो कथन, तर्क (7)
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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