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जिनधर्म-विवेचन
कि कालद्रव्य, लकड़ी के टुकड़े करनेवाला मजदूर, मजदूर को आज्ञा देनेवाला मालिक, कुल्हाड़ी, यह कार्य दिन में हो तो सूर्य का प्रकाश, रात्रि में हो तो बिजली का प्रकाश, जिस मकान में काम चल रहा हो वह मकान, जिस जमीन पर लकड़ी पड़ी हो वह जमीन, मजदूरी में व्यय होनेवाला धन, आदि सब निमित्त ही तो हैं; निमित्तों की कहाँ कमी है? किन्तु निमित्तों की महिमा और निमित्तों में उपादेयबुद्धि करने से तो मिथ्यात्व का ही पोषण होता है, धर्म होने का तो प्रश्न ही नहीं है।
४. द्रव्यदृष्टि से पराश्रित बुद्धि का नाश होता है। हम अपने में धर्म / रत्नत्रय प्रगट करना चाहते हैं तो अपने निज आत्मा के आश्रय के बल से ही अर्थात् केवल स्वावलम्बन से ही धर्म प्रगट कर सकते हैं - ऐसा विश्वास उत्पन्न होता है।
यदि अनुकूल निमित्त, चतुर्थकाल, सद्गुरु, शरीर की अनुकूलता, घर का अनुकूल वातावरण, अनुकूल पड़ोसी, योग्य उपदेशक, विशेष शास्त्रज्ञान, पर्याप्त धन आदि हों तो धर्म कर सकता हूँ - ऐसी मिथ्या बुद्धि का स्वयमेव अभाव हो जाता है।
५. मेरे पुण्यरूप, पापरूप अथवा वीतरागतारूप परिणमन का मैं स्वयं ही कर्ता हूँ। मेरे परिणामों की जिम्मेदारी मेरे ऊपर ही है। अन्य किसी विशिष्ट भगवान अथवा परवस्तु पर नहीं - ऐसा निर्णय होते ही मनुष्य, स्वयं ही अपने निज शुद्धात्मा के सन्मुख हो जाता है। जब मेरे सर्व कार्य मुझे ही करना है तो मैं किसके भरोसे मेरा काम छोड़ दूँ?
घर में अथवा किसी संस्था में एक काम की जिम्मेदारी अनेक लोगों पर हो तो काम समय पर नहीं होता और होता भी है तो अच्छा नहीं होता; क्योंकि कार्य करनेवाले व्यक्तियों की एकाग्रता उस कार्य के प्रति नहीं होती, अतः मनोयोग से कार्य नहीं करते। जब किसी एक काम की जिम्मेदारी किसी एक ही व्यक्ति पर हो तो वह उस काम को पूर्ण मनोयोगपूर्वक उत्तम से उत्तम करने का प्रयत्न करता है और कार्य श्रेष्ठतम होता है।
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द्रव्यत्वगुण - विवेचन
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इसीप्रकार मेरा आत्मकल्याण मुझे ही करना है, मैं ही उसे कर सकता हूँ, अन्य नहीं ऐसा निर्णय द्रव्यत्वगुण से होता है; अतः निर्णायक व्यक्ति को आत्मसन्मुख कार्य में बल आता है।
६. मोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्र के सातवें अध्याय में आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी धर्म का स्वरूप समझाते हुए लिखते हैं- “जब तत्त्वज्ञान के अभ्यास से कोई पदार्थ इष्ट-अनिष्ट भासित न होते; तब स्वयमेव ही क्रोधादिक उत्पन्न नहीं होते, तब सच्चा धर्म होता है।"
क्रोधादिक उत्पन्न नहीं होते, इसका अर्थ- राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होते - ऐसा समझना चाहिए। शास्त्र में क्रोध मान को द्वेषरूप और माया-लोभ को रागरूप कहा है। हास्य, रति तथा तीनों वेदों (स्त्रीपुरुष-नपुंसक) को भी रागरूप और अरति, शोक, भय एवं जुगुप्सा को द्वेषरूप माना गया है।
जब कोई भी मनुष्य, द्रव्यत्वगुण के स्वरूप को यथार्थतः जान लेता है। तो वह तत्त्वज्ञान का अभ्यासी हो जाता है एवं उसे राग-द्वेष उत्पन्न ही नहीं होते ऐसा समझना चाहिए।
वर्तमान में कोई रोगी होता है तो उसे यह समझना आवश्यक है कि यह रोग -अवस्था हमेशा रहनेवाली नहीं है, निरोग अवस्था भी अवश्य होगी। जो अभी निरोग है, उसे भी रोग अवस्था आने की सम्भावना को स्वीकार करना अनिवार्य है। जो धनवान है, वह निर्धन हो सकता है; जो निर्धन है, वह भी धनवान हो सकता है इन सबका कारण वस्तु की स्थिति सदा एक-सी नहीं रहती; क्योंकि द्रव्यत्वगुण के कारण प्रतिसमय परिवर्तन होते रहना वस्तु का स्वरूप ही है।
७. वर्तमान में अज्ञानी राग-द्वेष-मोह से दुःखी तो है ही; परन्तु उसे उसमें परिवर्तन करानेवाले द्रव्यत्वगुण का ज्ञान होते ही अपने दुःख के नाश होने की आशा अंकुरित हो जाती है।
विश्व की वस्तु व्यवस्था जीव के हित में है- यह नियम आश्चर्य