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________________ जिनधर्म-विवेचन १२९ ३. जीवादि द्रव्यों की अनादि-अनन्तता का ज्ञान कराने के लिए भी अस्तित्वगुण का प्रथम कथन करना आवश्यक है। ४. अज्ञानी मनुष्य को मरणभय का निराकरण करने के लिए तथा 'जीव' जन्म-मरण से रहित ही है - इसका सम्यक् बोध कराने के लिए अस्तित्वगुण का कथन सर्वप्रथम किया जा रहा है। १४३. प्रश्न - जैसे, किसी को गालियों से भरा हुआ पत्र आया, पढ़कर वह दुःखी हुआ। तदनन्तर उसने उस पत्र को द्वेष से जलाकर भस्म कर दिया तो बताइये, उसने किसका नाश किया और किसका नहीं? उत्तर - उसने निमित्तस्वरूप पत्ररूप पुद्गलमय पर्याय का नाश किया, पत्र में लिखे गये अक्षरों/वाक्यों का भी नाश किया, पत्र के आकार का भी नाश किया; तथापि उसने पत्र में विद्यमान पुद्गलमय परमाणुओं का नाश नहीं किया, उन पुद्गलों के स्पर्शादि गुणों का नाश नहीं किया। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि उसने पत्ररूप पर्याय विशेष का ही नाश किया है, पुद्गलद्रव्य और उसके गुणों का नाश नहीं किया है। १४४. प्रश्न - अस्तित्व का क्या अर्थ है? उत्तर - अस्ति + त्व = अस्तित्व । अस्ति = होना, उपस्थिति या सत्ता । त्व = पना अर्थात् उसरूप होना । संस्कृत भाषा में 'अस्' क्रियाधातु है। उसके तृतीय पुरुष के एक वचन का रूप ‘अस्ति' है। अस्ति शब्द का अर्थ है' है, यानि किसी की मौजूदगी' होती है। १४५. प्रश्न - अस्तित्वगुण किसे कहते हैं? उत्तर - जिस शक्ति के कारण द्रव्य का कभी नाश नहीं होता और वह द्रव्य, किसी से उत्पन्न भी नहीं होता, उसे 'अस्तित्वगुण' कहते हैं। ___अस्तित्वगुण की परिभाषा में दो बातें मुख्य हैं - प्रथम तो विद्यमान द्रव्य का कभी नाश नहीं होता। दूसरे, कोई नवीन द्रव्य किसी से उत्पन्न भी नहीं होता। अस्तित्वगुण को और अधिक स्पष्ट समझने के लिए निम्न प्रकार भी उसे परिभाषित कर सकते हैं ह्र अस्तित्वगुण-विवेचन 'जिस शक्ति के कारण उपस्थित/विद्यमान द्रव्य का कभी भी नाश नहीं होता और नवीन/नया द्रव्य किसी से उत्पन्न नहीं होता, उसे अस्तित्वगुण कहते हैं।' ___हमने नई परिभाषा में उपस्थित/विद्यमान, नवीन/नया द्रव्य शब्द जोड़े हैं, वे मूल परिभाषा में भी अप्रगटरूप से समाविष्ट हैं। हमने तो मात्र उन्हें जोड़कर विषय को स्पष्ट किया है। १४६. प्रश्न - द्रव्य को सत् या सत्ता किन आचार्यों ने कौनकौनसे ग्रन्थों में कहा है? उत्तर - १. आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय शास्त्र की गाथा १० में कहा है - “जो सत् लक्षणवाला है; जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यसंयुक्त है अथवा गुण-पर्यायों का आश्रय है; उसे सर्वज्ञ भगवान 'द्रव्य' कहते हैं।" २. पंचास्तिकाय शास्त्र की गाथा १० की टीका में ही आचार्य जयसेन ने द्रव्य का एक अर्थ 'द्रवित होता है अर्थात् प्राप्त होता है'- ऐसा किया है। तदुपरान्त 'द्रवति अर्थात् स्वभाव-पर्यायों को प्राप्त होता है और गच्छति अर्थात् विभाव-पर्यायों में गमन करता है। - ऐसा दूसरा अर्थ भी वहाँ किया गया है। ३. प्रवचनसार गाथा ९८ में कहा है - “द्रव्य, स्वभाव से सिद्ध और स्वभाव से ही 'सत्' है - ऐसा जिनेन्द्रदेव ने यथार्थतः कहा है; इसप्रकार आगम से सिद्ध है। जो इसे नहीं मानता, वह वास्तव में परसमय है।" ४. प्रवचनसार में ही गाथा ९९ में आया है - "स्वभाव में अवस्थित होने से द्रव्य, 'सत्' है। द्रव्य का जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यसहित परिणाम है, वह पदार्थों का स्वभाव है।" ५. आचार्य उमास्वामी ने तो तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ५ के सूत्र २९ में स्पष्ट शब्दों में सत्द्रव्यलक्षणम् अर्थात् 'द्रव्य का लक्षण सत् हैं' - ऐसा कहा है। (65)
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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