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________________ अस्तित्वगुण-विवेचन अस्तित्वगुण-विवेचन ब्र. गुलाबचन्दजी जैन (सोनगढ़) ने छह सामान्यगुणों के मर्म को पद्य शैली में अत्यन्त संक्षिप्त और विशिष्ट शब्दों में स्पष्ट किया है। वह पाठकों के लिए अत्यन्त उपयोगी होने के कारण हम प्रत्येक सामान्यगुण का वर्णन करने से पहले मङ्गलाचरण के रूप में एक-एक छन्द को प्रारम्भ में ही अर्थसहित दे रहे हैं - ।। मङ्गलाचरण ।। कर्ता जगत का मानता जो. 'कर्म या भगवान को': वह भूलता है लोक में, अस्तित्वगुण के ज्ञान को। उत्पाद-व्यययुत वस्तु है, फिर भी सदा ध्रवता धरे: अस्तित्व गुण के योग से, कोई नहीं जग में मरे।। इस जगत् में यदि कोई मनुष्य, किसी भगवान या कर्म को विश्व का कर्ता मानता है तो वह अस्तित्वगुण के ज्ञान को भूल जाता है। वास्तविकरूप से प्रत्येक द्रव्य उत्पाद-व्ययसहित होने पर भी अपने ध्रुव (नित्य) स्वभाव को कभी भी नहीं छोड़ता; इसीलिए इस अस्तित्वगुण के कारण से ही इस जगत् में कोई भी जीव मरता नहीं है। अतः प्रत्येक जीव अर्थात् वस्तु अविनाशी/अजर-अमर है। इस कारण मरणभय सहज ही टल जाता है। १४१. प्रश्न - सामान्यगुण अनन्त होने पर भी केवल अस्तित्वादि छह गुणों को ही आप मुख्य क्यों बता रहे हैं? उत्तर - अस्तित्वादि छह सामान्यगुणों की मुख्यता का प्रमुख कारण यह कि उनका यथार्थ ज्ञान करने से अनेक लाभ होते हैं ह्र १. जिनधर्मप्रणीत वस्तु-व्यवस्था का परम सत्य ज्ञान होता है और मैं जीवद्रव्य, किसी के उपकार से नहीं हूँ; परन्तु अनादिकाल से ही स्वतन्त्र हूँ एवं अनन्तकाल पर्यंत स्वतन्त्र ही रहूँगा - ऐसा पक्का निर्णय होता है। २. मोक्षमार्ग प्रगट करने का अभूतपूर्व पुरुषार्थ जागृत हो जाता है, जो हमें अपेक्षित है। ३. अस्तित्वादि सामान्यगुणों की यह एक खास विशेषता यह है कि इनका परिणमन, अनादिकाल से कभी विभावरूप हुआ ही नहीं अर्थात् इनका परिणमन आज तक शुद्धरूप ही हुआ है और अनन्त भविष्यकाल में भी शुद्धरूप ही होता रहेगा। ४. सामान्यगुणों का ज्ञान भेदज्ञान के लिए अतिशय उपयोगी है। ५. समयसार आदि ग्रन्थों में शुद्धात्मा, द्रव्य-गुण-पर्याय की स्वतन्त्रता का जो जोरदार उद्घोष है, उसका परिज्ञान जनसामान्य को इन अस्तित्वादि छह सामान्य गुणों से ही होता है; अतः अब यहाँ क्रमशः अस्तित्वादि प्रत्येक सामान्यगुण का आगम तथा तर्क से विस्तारपूर्वक सुलभ रीति से कथन करते हैं। १४२. प्रश्न - सामान्यगुणों में सबसे पहले अस्तित्वगुण का ही कथन क्यों किया जा रहा है? क्या कुछ विशेष कारण है ? उत्तर - १. जब तक वस्तु की सत्ता ही सिद्ध नहीं होगी, तब तक वस्तु-विषयक विचार करने की बात ही कहाँ से होगी? सबसे पहले तो वस्तु की सत्ता/उपस्थिति चाहिए, जिस पर विचार किया जा सके। अतः यहाँ सर्वप्रथम द्रव्य की सत्तासूचक अस्तित्वगुण का कथन किया गया है। २. अज्ञानी जीव को अनादिकाल से ऐसी वासना बनी हुई है कि मैं किसी भी पुरानी वस्तु का नाश कर सकता हूँ तथा नवीन वस्तु भी उत्पन्न कर सकता हूँ - इस वासना का अभाव करना आवश्यक है। इसी तरह हमने सृष्टि को उत्पन्न करने में कोई ईश्वर, सृष्टि को बनाये रखने और नाश करने में भी किसी अन्य भगवान सम्बन्धी मिथ्या मान्यता बना रखी है; उसके परिहारपूर्वक समाधान के लिए ही अस्तित्वगुण का ज्ञान कराया जा रहा है। (64)
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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