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जिनधर्म-विवेचन
एक गुण का रूप अन्य गुणों में रहता है, यह विषय भी सत्य है, किन्तु उसकी अपेक्षा अलग है । चिद्विलास आदि ग्रन्थों में उसका वर्णन किया गया है। पूज्य आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजीस्वामी ने भी इसका वर्णन अपने प्रवचनों में विस्तार से किया है ।
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१२५. प्रश्न गुण का द्रव्य में क्या स्थान है ? उत्तर- द्रव्य, द्रव्य-क्षेत्र काल और भाव तथा गुण, इन चारों में से अकेले भावस्वरूप है। १२६. प्रश्न गुणों का कर्ता कौन है ?
उत्तर - विश्व तथा द्रव्य का कर्ता कोई नहीं है अर्थात् विश्व एवं द्रव्य, दोनों जिसतरह अनादि-अनन्त, अकृत्रिम तथा स्वयम्भू हैं, उसी तरह गुण भी अनादि - अनन्त, अकृत्रिम तथा स्वयम्भू है ।
वास्तविक रूप से वस्तु - व्यवस्था का विचार किया जाए तो इस जगत् में कोई वस्तु द्रव्य, किसी अन्य द्रव्य का कर्ता नहीं है। सर्व द्रव्य एवं सर्व गुण, विश्व के समान ही अनादि-अनन्त एवं स्वयम्भू हैं; इसलिए किसी भी गुण का न कोई कर्ता है और न हर्ता है। सब द्रव्यों के सभी गुण स्वयम्भू हैं- इस परम सत्य का स्वीकार करना ही चाहिए।
१२७. प्रश्न गुणों में परिवर्तन होता है या नहीं?
उत्तर - गुणों का स्वरूप नहीं बदलता, इसलिए गुण अपरिवर्तनीय और नित्य हैं, किन्तु गुण की अवस्थाएँ बदलती हैं; इसीलिए उनमें परिवर्तन भी दिखाई देता है। जैसे, सामान्य दृष्टि से ज्ञान नित्य है, फिर भी वह कभी घट को जानता है और कभी पट को, इसीलिए अनित्य भी कहा जाता है।
इन चारों स्वरूप है
जैसे, आम में वर्णगुण सदा रहता है, इस अपेक्षा से यद्यपि वर्णगुण नित्य है तो भी आम की हरी, पीली आदि अवस्था बदलने के कारण वह अनित्य भी होता है। इस विषय की स्पष्ट जानकारी के लिए 'पंचाध्यायी' अध्याय १ के श्लोक १०९ से ११४ पर्यन्त देखिए ।
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गुण- विवेचन
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जैसे - ज्ञान, गुण है; जानना, उसकी पर्याय है। पर्याय का अर्थ ही अवस्था होता है। ज्ञानगुण का स्वरूप 'जानना' है, इसका यह जाननजाननस्वरूप तो कभी बदलता नहीं है। जानना छोड़कर ज्ञानगुण का स्वरूप कभी प्रतीतिरूप या चारित्ररूप नहीं होता; क्योंकि प्रतीति करना तो श्रद्धा का कार्य है, स्थिरता करना, चारित्रगुण का कार्य है इत्यादि । इसी प्रकार सभी गुणों के स्वरूप को समझना चाहिए। इस अपेक्षा से सभी गुण अपरिवर्तनशील अर्थात् नित्य हैं।
गुण की अवस्थाएँ बदलती हैं। जैसे- ज्ञानगुण की अवस्थाएँ मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय अथवा केवलज्ञानरूप होती हैं। संक्षेप में कहें तो ज्ञानगुण अल्पज्ञानरूप अथवा पूर्णज्ञानरूप रहता है। अल्पज्ञान भी अनेक अवस्थाओं को धारण करता रहता है।
बालपने में ज्ञान अत्यल्प अवस्थारूप रहता है; किन्तु विकास क्रम आयु बढ़ने के साथ ज्ञान, विकास को प्राप्त होता है। जैसे- अध्ययन / मनन करने से ज्ञान में वृद्धि होती है, प्रौढ़ावस्था तक पहुँचते-पहुँचते ज्ञान में बहुत अभिवृद्धि हो जाती है; किन्तु बुढ़ापा आते ही उसमें कमी आना प्रारम्भ हो जाता है और वह पुनः अल्पज्ञानरूप रह जाता है।
यहाँ जिसप्रकार ज्ञानगुण का विवेचन किया, उसी प्रकार चारित्र आदि गुणों पर भी हम इस विषय को स्पष्ट समझ सकते हैं। मनुष्यपर्याय में मुनिराज, ६ वें - ७वें गुणस्थान के योग्य चारित्रगुण का विकास करते हैं, पर स्वर्ग में पहुँचते ही पुनः चौथे गुणस्थानवर्ती असंयमी हो जाते हैं।
इसी प्रकार पुद्गल के स्पर्शादि गुणों में भी जानना चाहिए। जैसे स्पर्शगुण, स्पर्श स्वरूप से तो एकरूप ही रहता है, परन्तु अवस्थाओं परिवर्तन से वही स्पर्शगुण, शीत-उष्ण, हल्का भारी, रूखा-चिकना और कोमल-कठोररूप बदलता रहता है। स्पर्शगुण के समान ही रस, गन्ध और वर्णगुण के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए ।