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________________ ११६ जिनधर्म-विवेचन ११७ तो होता है; तथापि वह हरा रहता है, पकता नहीं है, उस समय उसका रस खट्टा रहता है, मीठा नहीं होता । स्पर्श भी कठोर रहता है, मृदु स्पर्श नहीं होता। गन्ध भी अपेक्षित सुगन्धरूप से परिणत नहीं होता। उसके बाद कुछ काल व्यतीत होने पर आम का रंग पीला तो हो जाता, लेकिन रस मीठा न होकर खट्टा ही बना रहता है; अतः पीला रंग होने पर रस मीठा ही होना चाहिए - यह नियम नहीं बन सकता; क्योंकि रंग (वर्ण) गुण में अनुकूल अवस्था होने पर भी रस गुण में मीठापन नहीं आया है। ___ इस तरह प्रत्येक गुण एवं उसका परिणमन स्वतन्त्र बताने का प्रयोजन गुण का ज्ञान कराने के पीछे छिपा है। इसीप्रकार धर्मादि द्रव्यों के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए। मूलभूत विवाद (झंझट) जीव एवं पुद्गलद्रव्य के साथ ही रहता है, क्योंकि इन दोनों में ही विभावभाव (विपरीत परिणाम) होते हैं। धर्मादि द्रव्यों का परिणमन हमेशा शुद्धरूप ही रहता है। १२३. प्रश्न - जिसप्रकार आपने गणों का ज्ञान कराने का प्रयोजन बताया है, उसीप्रकार द्रव्य का ज्ञान कराने का भी क्या कुछ प्रयोजन है? यहाँ कोई कहेगा कि मुझे तो मात्र सुख से प्रयोजन है। श्रद्धा को सम्यक्प बनाओ या आत्ममग्नतारूप चारित्र में भी अपेक्षित विकास करते रहो - इन सब बातों से हमारा क्या प्रयोजन है? उत्तर - देखो! सभी गुणों का पिण्डरूप जीवद्रव्य एक है। जीव के एक-एक प्रदेश में अनन्त-अनन्त गुण विराजमान हैं। आप मात्र अनन्त सुख की अपेक्षा रखोगे तो यह सम्भव नहीं है। जीव के सभी गुणों में अर्थात् गुणों के समूहरूप द्रव्य में यथायोग्य मोक्षमार्ग एवं मोक्ष के लिए परिवर्तन आवश्यक है। आगम में यह भी कथन आया है कि कोई एक ही गुण मोक्षमार्गरूप नहीं होता । दृष्टि सम्यक् होते ही अनन्त गुणों में सम्यक्पना, आता है; इसलिए द्रव्य से गुण कथंचित् ही स्वतन्त्र हैं, सर्वथा स्वतन्त्र नहीं हैं। गुण-विवेचन जैसे, लौकिक में कोई कहेगा कि मुझे तो आम का मात्र मीठा-मीठा रस ही चाहिए। इसके साथ स्पर्श, गन्ध, वर्ण आदि गुणों की पर्यायों से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है तो उससे यही कहना होगा - 'भाई! आमरूप पुद्गल के स्पर्शादि गुणों में से किसी भी एक गुण को तुम सर्वथा भिन्न नहीं कर सकते। अनन्त गुणमय द्रव्य को स्वीकार करना भी अनिवार्य ही समझना चाहिए। यदि आप आम का मात्र मीठा रस ही चाहते हो तथा आम के जो स्पर्श, गन्ध, वर्ण आदि अन्य गुण हैं, उनको नहीं चाहते तो प्रत्यक्ष में मात्र रस का भोग करने का प्रयास करो, परन्तु आम तो नियम से स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णसहित ही प्राप्त होगा। इसप्रकार द्रव्य के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान कराने का प्रयोजन (मतलब/ अभिप्राय) समझ लेना चाहिए। १२४. प्रश्न - तत्त्वार्थसूत्र में गुण को निर्गुण क्यों कहा है? उत्तर - जिसप्रकार द्रव्य में गुण होते हैं; उसी प्रकार एक गुण में कोई अन्य गुण नहीं होता अर्थात् एक गुण, अन्य गुण से रहित होता है; इसलिए प्रत्येक गुण को निर्गुण कहा है। जैसे, आत्मा में ज्ञानगुण है, ज्ञानगुण का कार्य जानना है। इस ज्ञानगुण में चारित्रगुण का प्रवेश नहीं है, चारित्रगुण में ज्ञानगुण का प्रवेश नहीं है; क्योंकि प्रत्येक गुण का स्वरूप भिन्न-भिन्न है। एक आत्मा में ही ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, श्रद्धा, चारित्र आदि अनन्त गुण हैं, पर प्रत्येक गुण का किसी अन्य गुण में प्रवेश नहीं है। यदि एक गुण, दूसरे गुण में प्रवेश कर जाए तो कोई भी गुण, अपने स्वरूप में नहीं रह पाएगा तथा प्रत्येक गुण भी अपना कार्य स्वतन्त्ररूप से किस प्रकार कर सकेगा? इस विवक्षा से ही गुण की परिभाषा में प्रयुक्त 'निर्गुण' शब्द का अर्थ समझना चाहिए। पुद्गल का स्पर्शगुण सदैव स्पर्शगुणरूप स्वतन्त्र ही रहता है। स्पर्शगुण का प्रवेश, रसादि गुणों में नहीं होता है और रसादि गुणों का प्रवेश स्पर्शगुण में नहीं होता है। (59)
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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