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जिनधर्म-विवेचन
उत्तर- भाईजी, प्रत्यक्षता की अपेक्षा एक जाति नहीं है, सम्यग्ज्ञान की अपेक्षा एक जाति है। चौथे गुणस्थानवाले को मति श्रुतरूप सम्यग्ज्ञान है और तेरहवें गुणस्थान वाले को केवलरूप सम्यग्ज्ञान है।
तथा एकदेश- सर्वदेश का अन्तर तो इतना ही है कि मति - श्रुतज्ञान वाला अमूर्तिक वस्तु को अप्रत्यक्ष और मूर्तिक वस्तु को भी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष, किंचित् अनुक्रम से जानता है तथा सर्वथा सर्व वस्तु को केवलज्ञान युगपत् जानता है; वह परोक्ष जानता है, यह प्रत्यक्ष जानता है; इतना ही विशेष है। और सर्वप्रकार एक ही जाति कहें तो जिसप्रकार केवली युगपत् प्रत्यक्ष अप्रयोजनरूप ज्ञेय को निर्विकल्परूप जानते हैं, उसीप्रकार यह भी जाने - ऐसा तो है नहीं; इसलिए प्रत्यक्ष-परोक्ष का विशेष जानना । अष्टसहस्री में कहा है -
स्याद्वाद के वलज्ञाने
सर्वतत्त्वप्रकाशने ।
भेदः साक्षादसाक्षाच्च, ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत् ॥
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(अष्टसहस्त्री, दशमपरिच्छेद, १०५) अर्थात् स्याद्वाद अर्थात् श्रुतज्ञान और केवलज्ञान- यह दोनों सर्व तत्त्वों का प्रकाशन करनेवाले हैं। विशेष इतना ही है कि केवलज्ञान प्रत्यक्ष है, श्रुतज्ञान परोक्ष है, परन्तु वस्तु है सो और नहीं है । "
२६. प्रश्न - रहस्यपूर्ण चिट्ठी में तो सम्यग्दृष्टि के ज्ञान के साथ केवलज्ञान की तुलना करके बताया है। यहाँ आप तो सामान्यजनों के अल्पज्ञान के साथ उसकी तुलना कर रहे हो; फिर दोनों का सुमेल कैसे होवे ?
उत्तर - यद्यपि सम्यग्दृष्टि के ज्ञान को तो आत्मानुभव का आधार है। और सामान्यजन के ज्ञान को आत्मानुभव का आधार तो नहीं है; तथापि सामान्यजन के ज्ञान को भी शास्त्र का तो आधार है ही।
पण्डित बनारसीदास के जीवन की एक घटना, यहाँ अति उपयोगी होने से हम उसे अपने शब्दों में दे रहे हैं -
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विश्व - विवेचन
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पण्डित बनारसीदासजी ने अपने जीवन में अनेक शास्त्रों की रचना की है, लेकिन उन्हें सम्यक्त्व, शास्त्र लिखे जाने के बाद हुआ । सम्यग्दर्शन, प्राप्ति के बाद उन्हें एक विकल्प हुआ 'सम्यग्दर्शन होने के पहले मैंने जो जिनवाणी की रचना की है, उसमें कदाचित् शास्त्र से विरुद्ध कुछ विषय हो तो उसे निकालना आवश्यक है।' इस विचार से पण्डितजी ने अपना सर्व साहित्य सूक्ष्मता से पढ़ा। पढ़ने के बाद उन्हें निर्णय हुआ कि 'मुझसे लिखित शास्त्र में तत्त्व के विरुद्ध कुछ भी नहीं है।' इसका अर्थ यह है ि सम्यक्त्व न भी हुआ हो; तथापि शास्त्रानुसार जो लिखा जाता है अथव बोला/कहा जाता है, वह भी प्रमाण अर्थात् सत्य ही रहता है।
इसप्रकार हमें यह समझना आवश्यक है कि सामान्य पाठक का शास्त्रानुसार जो जानना होता है, वह जानना भी यद्यपि केवलज्ञानी से ज्ञात विषय के समान प्रमाण अर्थात् सत्य होता है; तथापि उसे सम्यग्ज्ञान नहीं कहते।
(९) इस विशाल विश्व में मैं जीवद्रव्य कहाँ रहता हूँ तथा पुद् गलादि अन्य द्रव्य भी कहाँ रहते हैं? इसका पता लग जाता है।
तीन लोकरूप इस जगत् में अनन्त जीव हैं। उनमें से मैं भी एक स्वतन्त्र जीवद्रव्य हूँ। मेरा निवास इस लोक में है। लोक से बाहर अनन्त अलोकाकाश सर्व दिशाओं में है; तथापि वहाँ मेरा न निवास है और न कभी वहाँ जाना सम्भव है।
जैसे, किसी मनुष्य को अपने सम्बन्धी या मित्र को पत्र लिखना हो तो जिसे पत्र लिखना है, उसके पूरे पते का ज्ञान होना आवश्यक है । पते में उसका नाम, गाँव, घर का नम्बर, मोहल्ला, तहसील, जिला, प्रान्त, पिनकोड आदि का ज्ञान आवश्यक होता है; वैसे ही जीवादि द्रव्यों को जानना हो तो हमें उनके रहने के स्थान का पता जानना आवश्यक है। जीवादि अनन्तानन्त द्रव्य अलोकाकाश में नहीं रहते, मात्र लोकाकाश में