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जिनधर्म-विवेचन
विशिष्ट कोर्स करनेवाला विद्यार्थी धनवानों से कहता है कि मुझे पढ़ने के लिए पैसा दो तो धर्म होगा।
परोपकार में संलग्न ऐसी संस्था चलानेवाले संस्था संचालक कहते हैं कि हमारी संस्था को आप मदद करोगे तो आपको धर्म होगा। ऐसी परिस्थिति में दान के नाम पर मात्र आर्थिक मदद करना ही धर्म है - ऐसा सब लोग हमें समझाते हैं।
हमें विचार यह करना है कि वास्तविक धर्म क्या है? क्या संकटग्रस्त व्यक्ति को मदद करना ही धर्म है? यदि यही धर्म है तो वीतरागी, सर्वज्ञ एवं हितोपदेशी जिनेन्द्र भगवन्तों ने भी इसी को धर्म कहा है क्या? क्या वे भी ऐसा ही धर्म करते रहते हैं? यदि नहीं तो क्यों नहीं? और क्या इसीतरह का धर्म करते-करते ही सिद्ध भगवान बनना, मुक्त होना, मोक्ष जाना सम्भव है?
लेकिन मैं यह जोर देकर कहना चाहता हूँ कि जिस मनुष्य को धर्म की अल्प भी समझ हो, वह यह समझता होगा कि परोपकार कितना भी करते रहो, उससे सदाकाल के लिए पूर्ण सुखी होना सम्भव नहीं है अर्थात् अरहन्त-सिद्ध अथवा जिनेन्द्र होना सम्भव नहीं है । पण्डित श्री भागचन्दजी ने भी भजन में कहा है
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परिणति सब जीवन की तीन भाँति वरनी। एक पाप, एक पुण्य, एक राग हरनी ॥ अर्थात् जीव के परिणाम तीन प्रकार के होते हैं - १. अशुभराग २. शुभराग ३. रागहरणी अर्थात् वीतराग परिणाम । वीतरागता धर्म है, पुण्यपाप तो कर्म है; यह जिनधर्म का मर्म है।
एक दोहा आप सभी ने भी सुना ही होगा -
धर्म धर्म सब कोई कहे, धर्म न जाने कोय | धर्म-मर्म जाने बिना, धर्म कहाँ से होय ॥
इस कारण विश्व को जानने से जिनेन्द्रकथित धर्म की श्रद्धा विशेष दृढ़ होती है।
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विश्व - विवेचन
(८) अपना अल्प (मति श्रुत) ज्ञान भी केवलज्ञान के समान वस्तु के सत्यस्वरूप को जानने लगता है।
२४. प्रश्न जिनागम का अध्ययन करनेवाले सभी लोग विश्व, लोक, अलोक, छह द्रव्य, सात तत्त्व, सुमेरु पर्वत, अकृत्रिम जिनमन्दिरजिनबिम्ब, स्वर्ग-नरक, कर्म, परमाणु आदि सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ को जानते हैं ऐसा सामान्य ज्ञान तो सामान्य पाठकों को भी होता है, उसका क्या कारण है?
उसका एकमेव उत्तर यही है कि जिनेन्द्र भगवन्तों ने परम सत्य वस्तुस्वरूप को अपने केवलज्ञान से प्रत्यक्ष जान लिया है। केवलज्ञानी ने जो जाना है, उसे उनकी वाणी के आधार पर आचार्यों ने शास्त्र में यथार्थरूप से लिपिबद्ध किया है। आचार्यों द्वारा अक्षरबद्ध / लिपिबद्ध किये हुए विषय को सामान्य बुद्धिधारक जीवों ने शास्त्र पढ़कर ही जान लिया है। इसी कारण केवलज्ञानगम्य अनेक वस्तुओं को अल्पज्ञ लोग भी मानो प्रत्यक्षवत् ही जानते हैं; केवलज्ञानगम्य वस्तु का ज्ञान और श्रुतज्ञानगम्य वस्तु का ज्ञान; इसमें मात्र प्रत्यक्ष और परोक्ष का ही अन्तर है।
इस विषय को पण्डित टोडरमलजी ने अत्यन्त विशदरूप से रहस्यपूर्ण चिट्ठी में व्यक्त किया है -
“चौथे गुणस्थान में आत्मा के ज्ञानादि गुण एकदेश प्रगट होते हैं और तेरहवें गुणस्थान में आत्मा के ज्ञानादि गुण सर्वथा प्रगट होते हैं । तथा जैसे, दृष्टान्तों की एक जाति है, वैसे ही जितने गुण अव्रती - सम्यग्दृष्टि के प्रगट होते हैं, उनकी और तेरहवें गुणस्थान में जो गुण प्रगट होते हैं, उनकी एक जाति है।
२५. वहाँ तुमने प्रश्न लिखा कि एक जाति है तो जिसप्रकार केवली सर्व ज्ञेयों को प्रत्यक्ष जानते हैं, उसीप्रकार चौथे गुणस्थानवाला भी आत्मा को प्रत्यक्ष जानता होगा?