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जिनधर्म-विवेचन
लोक के सम्बन्ध में श्री कार्तिकेयस्वामी और भी खुलासा करते हैं - "अण्णोण्णपवेसेण य, दव्वाणं अच्छणं भवेलोओ।
दव्वाणं णिच्चत्तो, लोयस्स वि मुणह णिच्चत्तं।। ११६।। अर्थात् जीवादिक द्रव्यों की परस्पर एकक्षेत्रावगाहरूप स्थिति (मिलापरूप अवस्थान) को लोक कहते हैं। द्रव्य हैं, वे नित्य हैं ; इसलिए लोक भी नित्य है - ऐसा जानना चाहिए।
इसप्रकार छह द्रव्यों के समुदाय को लोक कहते हैं । लोक का प्रत्येक द्रव्य नित्य है; इसलिए लोक भी नित्य ही है।"
सामान्यजन में प्रसिद्ध छहढाला की पाँचवीं ढाल में भी पण्डित श्री दौलतरामजी ने लोकानुप्रेक्षा में स्पष्ट शब्दों में लिखा है -
"किनहू न कसै, न धरै को, षद्रव्यमयी न हरै को।
सो लोकमाहि बिन समता, दुख सहै जीव नित भ्रमता।। अर्थात् इस लोक को किसी ने बनाया नहीं है, किसी ने टिका नहीं रखा है, कोई नाश नहीं कर सकता और यह लोक छह द्रव्यों से परिपूर्ण है - ऐसे लोक में वीतरागी समताभाव के बिना यह जीव सदैव भटकता हुआ दुःख सहन करता रहता है।"
शास्त्रानुसार कथन तो बहुत हुआ; तथापि यह विषय जब तक हमें हृदय से स्वीकार नहीं होता, तब तक कुछ भी कार्यकारी नहीं होता; इसलिए हम यहाँ तर्क के आधार से और भी विचार करते हैं -
मान लो कि किसी भगवान या ईश्वर या अल्ला ने इस विशाल विश्व को बनाया है।
यहाँ हम पूँछना चाहते हैं कि विश्व को उत्पन्न करनेवाले उस भगवान को किसने बनाया? आप यह भी उत्तर दे सकते हैं कि 'उस भगवान से भी अधिक जो बलवान भगवान है, उसने विश्व को उत्पन्न करनेवाले भगवान को बनाया।"
तो पुनः हमारा प्रश्न है कि 'उस अधिक बलवान भगवान को
विश्व-विवेचन किसने उत्पन्न किया?' इस तरह का आपसे हमारा प्रश्न खड़ा ही रहेगा; इसमें अनवस्था नाम का दोष भी आता है, यह भी समझना चाहिए।
फिर आपको थककर अन्त में यही उत्तर देना अनिवार्य हो जाएगा कि एक ही भगवान स्वयंभू है। (उसको किसी ने उत्पन्न नहीं किया) अपने आप बना है, अकृत्रिम है।
ऐसे प्रसंग में हम आपसे कहते हैं कि यदि मजबूरीवश आपको एक जीव को ही सही आखिरकार स्वयंभू मानना पड़ता है तो जीवादि छहों द्रव्यों को - सम्पूर्ण विश्व को ही स्वयंभू क्यों नहीं मानते? जिस विषय को अनन्त सर्वज्ञ भगवन्तों ने अपनी ओंकाररूप दिव्यध्वनि द्वारा अनन्त बार कहा है।
और भी एक तर्क-जिस भगवान ने प्रारम्भ में विश्व की रचना की; उस भगवान ने कहाँ - कौन से स्थान पर खड़े होकर अथवा बैठकर विश्व को बनाया? उस स्थान का नाम हम जानना चाहते हैं।
उत्तर में आप किसी न किसी स्थान का नाम बताओगे ही। इसका अर्थ यह हुआ कि एक भगवान (अर्थात् जीवद्रव्य) अनादि से है - इसका अर्थ जीवद्रव्य, अनादि से सिद्ध होता है।
इसीप्रकार भगवान ने किसी न किसी स्थान पर रहते हुए लोक को बनाया - इसका अर्थ है कि वह स्थान अर्थात् आकाशद्रव्य भी पहले से है अर्थात् जीवद्रव्य एवं आकाशद्रव्य - इन दो द्रव्यों की अनादिपने तथा अकृत्रिमपने की सिद्धि हो जाती है।
लेकिन हमारा फिर भी प्रश्न रहेगा कि भगवान ने विश्व की रचना कब की? इसका उत्तर जो कुछ भी दिया जाए, उससे कालद्रव्य की भी अनायास सिद्धि तो हो ही जाती है।
यदि विश्व-निर्माता भगवान ने छोटे-बड़े पर्वत, पहाड़ियाँ आदि बनाए । नदी-नाले में पानी भी भगवान ने ही उत्पन्न किया। मनुष्य, पशु आदि का शरीर भी तो भगवान ने ही बनाए। सुगन्धित सुन्दर-सुन्दर
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