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जिनधर्म-विवेचन
पण्डितप्रवर दौलतरामजी ने छहढाला (पाँचवीं ढाल, छन्द ७) में आत्मा और शरीर के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए इसी दृष्टान्त का प्रयोग किया है, जो निम्नानुसार है -
'जल-पय ज्यों जिय-तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहीं भेला'
अर्थात् पानी और दूध के समान जीव और शरीर में मेल / मिलाप दिखाई देता है, परन्तु ये दोनों भिन्न-भिन्न ही हैं, मिले हुए नहीं हैं।
जैसे, पानी और दूध दोनों मिले हुए होने पर भी नियम से भिन्नभिन्न ही हैं - यह स्पष्ट ज्ञात होता है। वैसे ही जीवादि छह द्रव्य अनादिकाल से पर्यायापेक्षा परस्पर में मिले हुए हैं; फिर भी वे द्रव्यापेक्षा परस्पर एकदूसरे से भिन्न-भिन्न ही हैं; क्योंकि उनका स्वभाव, स्वरूप और लक्षण सर्वथा भिन्न-भिन्न है तथा भिन्न-भिन्न लक्षणवाले द्रव्य एकरूप कैसे हो सकते हैं?
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इस विषय को आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकायसंग्रह की ७वीं गाथा में निम्नप्रकार समझाया है -
अण्णोणं पविसंता, देता ओगासमण्णमण्णस्स । मेलंता विय णिच्चं, सगं सभावं ण विजहंति ॥
अर्थात् वे छह द्रव्य, एक-दूसरे में प्रवेश करते हैं, परस्पर अवकाश देते हैं, क्षीर- नीरवत् मिल जाते हैं; तथापि सदा अपने अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते।
१९. प्रश्न आपने इसके पहले विश्व की परिभाषा समझाते समय भूमिका में ही 'इस विश्व का कोई कर्ता-धर्ता नहीं है' - ऐसा संकेत तो किया है; तथापि यहाँ अत्यन्त स्पष्टरूप से समझने के लिए हम पूँछते हैं कि इस विश्व को किसी ने उत्पन्न किया है या नहीं? यदि किसी ने विश्व को उत्पन्न किया ही नहीं तो यह आया कहाँ से? और यह विश्व कब तक रहेगा? क्योंकि दुनिया में हम जो-जो वस्तु या कार्य देखते हैं, वह किसी न किसी के द्वारा बनाया हुआ ही जानने में
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विश्व - विवेचन आता है; इसलिए हमें यही लगता है और जँचता भी है कि इस विश्व को उत्पन्न करनेवाला कोई न कोई कर्ता होना ही चाहिए।
उत्तर - इस विश्व को किसी ने बनाया या उत्पन्न नहीं किया; क्योंकि इसमें रहनेवाले जीवादि सभी द्रव्य, अनादि-अनन्त एवं स्वयंसिद्ध हैं; इसलिए छह द्रव्यमय यह विश्व भी स्वतः सिद्ध है।
विश्व स्वतः सिद्ध है - इस अति महत्त्वपूर्ण विषय का कथन श्री कार्तिकेयस्वामी ने अपनी एकमेव कृति कार्तिकेयानुप्रेक्षा में लोकभावना के अन्तर्गत निम्न प्रकार किया है -
" सव्वायासमणंतं, तस्स य बहुमज्झसंठिओ लोओ । सो केण वि णेव कओ, ण य धरिओ हरिहरादीहिं ।
अर्थात् आकाशद्रव्य का क्षेत्र (प्रदेश) अनन्त है, उसके बहुमध्यदेश (अलोकाकाश के ठीक बीच के असंख्यात प्रदेश) में लोक स्थित है, वह किसी के द्वारा बनाया हुआ नहीं है तथा किसी हरि-हरादि के द्वारा धारण (रक्षा) किया भी नहीं है।" हुआ
इस विषय का और खुलासा करते हुए हिन्दी टीकाकार पण्डित श्री जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं
“अन्य मतों में कोई कहते हैं कि लोक की रचना ब्रह्मा करता है, नारायण (विष्णु), रक्षा करता है, शिव, संहार (नाश) करता है तथा कछुआ और शेषनाग इसको धारण किये हुए हैं। जब प्रलय होता है, तब सब शून्य हो जाता है, ब्रह्म की सत्ता मात्र रह जाती है
पुनः ब्रह्म की सत्ता में से सृष्टि की रचना होती है, इत्यादि अनेक कल्पित बातें कहते हैं; उन सबका निषेध इस गाथा से जान लेना चाहिए।
लोक किसी के द्वारा बनाया हुआ नहीं है, धारण किया हुआ नहीं है, किसी के द्वारा इसका नाश भी नहीं होता है; क्योंकि जैसा वस्तु का यथार्थ स्वरूप है, वैसा ही सर्वज्ञ ने देखा है । "