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________________ प्रकरण तीसरा को, मानों कि - वे द्रव्य ज्ञायक में उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हों, कीलित हो गये हों, समा गये हों, प्रतिबिम्बित हुए हों इस प्रकार - एक क्षण में ही जो (शुद्ध आत्मा) प्रत्यक्ष करता है...' (श्री प्रवचनसार, गाथा 200 की टीका) 8. 'घातिकर्म का नाश होने पर अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य यह अनन्त चतुष्टय प्रगट होते हैं । वहाँ अनन्त दर्शन-ज्ञान से तो, छह द्रव्यों से भरपूर जो यह लोक है, उसमें जीव अनन्तान्त; पुद्गल उनसे भी अनन्तानन्तगुने हैं; और धर्म, अधर्म तथा आकाश यह तीन द्रव्य एक-एक हैं और असंख्य कालद्रव्य हैं - उस सर्व द्रव्यों की भत-भविष्य-वर्तमान काल सम्बन्धी अनन्त पर्यायों को भिन्न-भिन्न एक समय में देखते और जानते हैं। (अष्टपाहुड़-भावपाहुड़, गाथा 150 की पण्डित जयचन्दजी कृत टीका) 9. श्री पञ्चास्तिकाय की श्री जयसेनाचार्य कृत संस्कृत टीका, गाथा 5 में कहा है कि - ___....णाणाणाणं च णत्थि केवलिणो केवली भगवान को ज्ञानाज्ञान नहीं होता, अर्थात् उन्हें किसी विषय में ज्ञान और किसी में अज्ञान वर्तता है - ऐसा नहीं होता, किन्तु सर्वत्र ज्ञान ही वर्तता है। 10. 'केवली भगवान त्रिकालावच्छिन्न लोक-अलोक सम्बन्धी सम्पूर्ण गुण-पर्यायों में समन्वित अनन्त द्रव्यों को जानते हैं। ऐसा कोई ज्ञेय नहीं हो सकता जो केवली भगवान के ज्ञान का विषय न हो... जब मति और श्रुतज्ञान द्वारा भी यह जीव
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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