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________________ प्रकरण दूसरा द्रव्यों की एकता माननेरूप मिथ्यात्व हो जाता है; इसलिए ऐसा समझना चाहिए कि जीव के अपने दोष से ही अशुद्धता होती है और उसे जीव स्वयं करता है, इसलिए वह दूर भी की जा सकती है। जीव, विकार (अशुद्धदशा) अपने दोष से ही करता है, इसलिए अशुद्धनिश्चयनय से वह स्वकृत है, किन्तु स्वभाव दृष्टि के पुरुषार्थ द्वारा उसे अपने में से दूर किया जा सकता है, इसलिए शुद्धनिश्चयनय से वह परकृत है। इन विकारों को शुद्धनिश्चयनय की दृष्टि से निम्नोक्त नामों द्वारा पहिचाना जाता है - परकृत, परभाव, पराकार, पुद्गलभाव, कर्मजन्यभाव, प्रकृति -शीलस्वभाव, परद्रव्य, कर्मकृत, तद्गुणाकार संक्रान्ति, परगुणाकार कर्मपदस्थित, जीव में होनेवाले अजीवभाव, तद्गुणाकृति, परयोगकृत, निमित्तकृत आदि; किन्तु उससे वे परकृतादि नहीं हो जाते; मात्र अपने में से टाले जा सकते हैं, इतना ही वे दर्शाते हैं। (गुजराती आवृत्ति पञ्चाध्यायी- भाग -2, गाथा -72 का भावार्थ) उस पर्याय में अपना ही दोष है, अन्य किसी का उसमें किन्चित् हाथ या दोष नहीं है। पञ्चाध्यायी - भाग -2, की 60 वीं और 56 वीं गाथा में – 'जीव स्वयं ही अपराधी है'- ऐसा कहा है; इसलिए परद्रव्य या कर्म का उदय जीव में विकार करे - कराये, अथवा कर्मोदय के कारण जीव को विकार करना पड़ता है - ऐसी मान्यता मिथ्या है। निमित्तकारण तो उपचरित कारण है किन्तु वास्तविक कारण नहीं है; इसलिए उसे पञ्चाध्यायी, भाग-2, गाथा 351 में अहेतुवत् – अकारणवत् कहा है।
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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