________________
श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
43
'पञ्चाध्यायी' अध्याय - 2, गाथा 1008-10 में भी कहा है कि - 'कोई भी गुण किसी प्रकार दूसरे गुण में अन्तर्भूत नहीं होता - (एक गुण में दूसरे गुण नहीं समा जाते)। परस्पर आधार - आधेय तथा उपादान - उपादेयरूप से (कारण-कार्यरूप से) दों गुणों का सम्बन्ध नहीं है, किन्तु सभी गुण अपनी-अपनी शक्ति के योग से स्वतन्त्र हैं और वे भिन्न-भिन्न लक्षणवाले अनेक हैं, तथापि स्वद्रव्य के साथ परस्पर एकमेक हैं।'
प्रश्न 64 – गुरु का ज्ञान शिष्य को प्राप्त हुआ; मुझे शास्त्रों से ज्ञान की प्राप्ति हुई - यह ठीक है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि एक द्रव्य के अनन्त गुणों में से एक गुण दूसरे गुण में नहीं जाता; तो फिर भिन्न द्रव्य के गुण दूसरे द्रव्य में कैसे जाएँगे? एक वस्तु का कोई भी गुण दूसरी को मिलता है - ऐसी मान्यतावाला अगुरुलघुत्व गुण को नहीं मानता; वह वस्तु को ही स्वतन्त्र नहीं मानता।
प्रश्न 65 - मैं चश्मे द्वारा पुस्तक पढ़ रहा हूँ और उससे मुझे ज्ञान होता है - ऐसा मानना ठीक है?
उत्तर - नहीं, अगुरुलघुत्व गुण के कारण ऐसा नहीं होता, क्योंकि
(1) पर से आत्मा का और आत्मा से पर का कार्य हो तो द्रव्य बदलकर नष्ट हो जाए, लेकिन ऐसा नहीं होता।
(2) आत्मा निश्चय से स्व-परप्रकाशक अपने आत्मा को जानता है और -