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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला 409 सर्वज्ञत्व -शक्ति आत्माज्ञानमय है। जिसने आत्मा को जाना, उसने सर्व जाना। हे जीव! तेरे ज्ञानमात्र आत्मा के परिणमन में अनन्त धर्म एक साथ उछल रहे हैं, उसी में झाँककर अपने धर्म को ढूँढ़; कहीं बाह्य में अपने धर्म को मत खोज। तेरी अन्तरशक्ति के अवलम्बन से ही सर्वज्ञता प्रगट होगी। ___ जिसने अपने में सर्वज्ञता प्रगट होने की शक्ति मानी है, वह जीव, देहादि की क्रिया का ज्ञाता रहा; पर की क्रिया को बदलने की बात तो दूर रही, किन्तु अपनी पर्याय को आगे-पीछे करने की बुद्धि भी उसके नहीं होती। ज्ञान कहीं फेरफार नहीं करता; मात्र जानता है। जिसने ऐसे ज्ञान की प्रतीति की, उसे स्वसन्मुख दृष्टि के कारण पर्याय-पर्याय में शुद्धता बढ़ती जाती है और राग छूटता जाता है - इस प्रकार ज्ञानस्वभाव की दृष्टि, वह मुक्ति का कारण है। __'सर्वज्ञता' कहने से दूर के या निकट के पदार्थों को जानने में भेद नहीं रहा; पदार्थ दूर हो या निकट हो, उसके कारण ज्ञान करने में कोई अन्तर नहीं पड़ता। दूर के पदार्थ को निकट करना या निकट के पदार्थ को दूर करना ज्ञान का कार्य नहीं है, किन्तु निकट के पदार्थ की भाँति ही दूर के पदार्थ को भी स्पष्ट जानना ज्ञान का कार्य है। 'सर्वज्ञता' कहने से सर्व को जानना आया, किन्तु उनमें कहीं 'यह अच्छा, यह बुरा' - ऐसी बुद्धि या राग द्वेष करना नहीं आया। केवली भगवान को समुद्घात होने से पूर्व उसे जाननेरूप परिणमन हो गया है; सिद्धदशा होने से पूर्व उसका ज्ञान हो गया है; भविष्य की अनन्तानन्त सुखपर्यायों का वेदन होने से पूर्व सर्वज्ञत्वशक्ति उसे जाननेरूप परिणमित हो गयी - इस प्रकार ज्ञान तीनों काल की पर्यायों को जान लेने के सामर्थ्यवाला है, किन्तु उनमें किसी पर्याय
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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