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________________ 408 परिशिष्ट-1: सर्वज्ञता की महिमा - ऐसे विपरीत अभिप्राय में सत् की हत्या होती है, इसलिए उस विपरीत अभिप्राय को महान हिंसा कहा जाता है और वही महान पाप है। अहो! मैं तो ज्ञान हूँ; सारा जगत् ज्यों का त्यों अपने-अपने स्वरूप में विराज रहा है और मैं अपने ज्ञानतत्त्व में विराजमान हूँ तो फिर कहाँ राग और कहाँ द्वेष? राग-द्वेष कहीं है ही नहीं। मैं तो सबका ज्ञाता-सर्वज्ञता का पिण्ड हूँ; मेरे ज्ञानतत्त्व में राग-द्वेष हैं ही नहीं - ऐसा धर्मी जानता है। __ हे जीव! ज्ञानी तुझे तेरा आत्मवैभव बतलाते हैं। अपने ज्ञान में ही स्थिर रहकर एक समय में तीन काल-तीन लोक को जाने - ऐसा ज्ञानवैभव तुझमें विद्यमान हैं। यदि अपनी सर्वज्ञशक्ति का विश्वास करे तो कहीं भी परिवर्तन करने की बुद्धि दूर हो जाए। ___ वस्तु की पर्याय में जिस समय जो कार्य होना है, वही नियम से होता है और सर्वज्ञ के ज्ञान में उसी प्रकार ज्ञात हुआ है; - ऐसा जो नहीं मानता और निमित्त के कारण उसमें फेरफार होना मानता है, उसे वस्तुस्वरूप की या सर्वज्ञता की प्रतीति नहीं है। सर्वज्ञता कहते ही समस्त पदार्थों का तीनों काल का परिणमन सिद्ध हो जाता है। यदि पदार्थ में तीनों काल की पर्यायें निश्चित क्रमबद्ध न होती हों और उल्टी-सीधी होती हों तो सर्वज्ञता ही सिद्ध नहीं हो सकती; इसलिए सर्वज्ञता स्वीकार करनेवाले को वह सब स्वीकार करना ही पड़ेगा। आत्मा में सर्वज्ञशक्ति है, वह 'आत्मज्ञानमयी' है। आत्मा परसन्मुख होकर पर को नहीं जानता, किन्तु आत्मसन्मुख रहकर आत्मा को जानते हुए लोकालोक ज्ञात हो जाता है; इसलिए
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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