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परिशिष्ट-1 : सर्वज्ञता की महिमा
• साधक को पर्याय में सर्वज्ञता प्रगट नहीं हुई है, तथापि वह अपनी सर्वज्ञशक्ति की प्रतीति करता है।
• वह प्रतीति उसने पर्याय की ओर देखकर नहीं की है, किन्तु स्वभाव की ओर देखकर की है। वर्तमान पर्याय तो स्वयं ही अल्पज्ञ है; उस अल्पज्ञता के आश्रय से सर्वज्ञता की प्रतीति कैसे हो सकती है?
• अल्पज्ञ पर्याय द्वारा सर्वज्ञता की प्रतीति होती है, किन्तु अल्पज्ञता के आश्रय से सर्वज्ञता की प्रतीति नहीं होती; त्रिकाली स्वभाव के आश्रय से ही सर्वज्ञता की प्रतीति होती है।
प्रतीति करनेवाली तो पर्याय है, किन्तु उसे आश्रय द्रव्य का है।
द्रव्य के आश्रय से सर्वज्ञता की प्रतीति करनेवाले जीव को सर्वज्ञतारूप परिणमन हुए बिना नहीं रहता।
अल्पज्ञ पर्याय के समय भी, अपने में सर्वज्ञत्वशक्ति होने का जिसने निर्णय किया, उसकी रुचि का जोर अल्पज्ञ पर्याय की ओर से हटकर अखण्ड स्वभाव की ओर ढल गया है, इसलिए वह जीव 'सर्वज्ञ भगवान का लघुनन्दन' हुआ है।
अभी स्वयं को सर्वज्ञता प्रगट होने से पूर्व 'मेरा आत्मा त्रिकाल सर्वज्ञतारूप परिणमित होने की शक्तिवाला है' - ऐसा जिसने स्वसन्मुख होकर निर्णय किया, वह जीव अल्पज्ञता को, राग को या पर को अपना स्वरूप नहीं मानता; अपने पूर्ण ज्ञानस्वरूप पर ही उसकी दृष्टि होती है। ___ जो आत्मा अपनी पूर्ण ज्ञानशक्ति की प्रतीति करता है, वही सच्चा जैन और सर्वज्ञदेव का भक्त है।
आत्मा, पर का ग्रहण-त्याग करता है अथवा पर में फेरफार करता है - ऐसा जो मानता है, वह जीव, आत्मा की शक्ति