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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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उत्तर - योगों से रहित और केवलज्ञानादि सहित अरिहन्त भट्टारक (भगवान) को चौदहवाँ अयोगी केवली गुणस्थान प्राप्त होता है।
इस गुणस्थान का काल अ, इ, उ, ऋ, लु, - इन पाँच ह्रस्व स्वरों के उच्चार में जितना काल लगे उतना है। अपने गुणस्थान के काल के द्विचरम समय में सत्ता की 85 प्रकृतियों में से 72 प्रकृतियों का और चरम समय में 13 प्रकृतियों का नाश करके अरिहन्त भगवान मोक्ष धाम में लोक के अग्र भाग में पधारते हैं।
प्रश्न 119 - नव देवों के नाम बतलाइये?
उत्तर - अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनवचन, और शृंगारादि दोष रहित और साक्षात् जिनेश्वर समान हो ऐसी जिनप्रतिमा तथा जिनमन्दिर - यह नवदेव हैं।
(विद्वद्जन बोधक, भाव संग्रह; श्री लघु जैन सिद्धान्त प्रवेशिका) प्रश्न 120 - अविरत सम्यग्दृष्टि को मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी प्रकृतियों का आस्रव तो नहीं होता, किन्तु अन्य प्रकृतियों का तो आस्रव होकर बन्ध होता है; तो उसे ज्ञानी कहें या अज्ञानी?
उत्तर - सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञानी ही हैं क्योंकि वह अभिप्रायपूर्वक के आस्रवों से निवृत्त हो चुका है। उसे कर्म प्रकृतियों का जो आस्रव तथा बन्ध होता है; वह अभिप्रायपूर्वक नहीं है। सम्यग्दृष्टि होने के पश्चात् परद्रव्य के स्वामित्व का अभाव है, जब तक नोट - प्रत्येक गुणस्थान में कितनी प्रकृतियाँ सत्ता में होती हैं और कितनी कर्म प्रकृतियों का उदय होता है - इस सम्बन्धी ज्ञान के लिए श्री जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, गोम्मटसार आदि देखना चाहिए।