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प्रकरण दसवाँ
का श्रद्धान सदाकाल करने योग्य है। वह श्रद्धान आत्मा का ही स्वरूप है; चौथे गुणस्थान से ही वह प्रगट होता है और निरन्तर स्थायी रहकर सिद्धदशा में भी सदैव उसका सद्भाव बना रहता है। इसलिए निश्चयसम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थान से प्रगट होता है, उसके ऊपर के सभी गुणस्थानों में तथा सिद्ध भगवन्तों में भी सदैव रहता है - ऐसा समझना। (मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 470-71)
प्रश्न 42 - तत्त्वार्थसूत्र में तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' कहा है, वह निश्चयसम्यग्दर्शन है या व्यवहार -सम्यग्दर्शन?
उत्तर - वह निश्चयसम्यग्दर्शन है और सिद्ध अवस्था में भी वह सदैव रहता है, इसलिए उसे व्यवहारसम्यग्दर्शन नहीं माना जा सकता।
(मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 470-71, 475) प्रश्न 43 - तिर्यंचादि जो अल्पज्ञानवाले हैं उन्हें, और केवली तथा सिद्ध भगवान को निश्चय सम्यग्दर्शन समान ही होता है ?
उत्तर - (1) हाँ; तिर्यंच और केवली भगवान में ज्ञानादिक की हीनाधिकता होने पर भी उनमें सम्यग्दर्शन तो समान ही कहा है। जैसा सात तत्त्वों का श्रद्धान छद्मस्थ को होता है, वैसा ही केवली तथा सिद्ध भगवान को भी होता है। छद्मस्थ को श्रुतज्ञान के अनुसार प्रतीति होती है, उसी प्रकार केवली और सिद्धभगवान को केवलज्ञानानुसार ही प्रतीति होती है।
(2) मूलभूत जीवादि के स्वरूप का श्रद्धान जैसा छद्मस्थ को होता है, वैसा ही केवली को तथा सिद्धभगवान को होता है।
(3) केवली - सिद्ध भगवान, रागादिरूप परिणमित नहीं