SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 370
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 370 प्रकरण दसवाँ (5) आत्मश्रद्धान हो। - उसे सम्यक्त्व कहते हैं। उन लक्षणों से अविनाभावसहित जो श्रद्धा होती है, वह निश्चयसम्यग्दर्शन है। [उस पर्याय का धारक सम्यक्त्व (श्रद्धा) गुण है; सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन उसकी पर्यायें हैं।] प्रश्न 28 - सम्यग्दर्शन होने पर श्रद्धा कैसे होती है ? उत्तर - मैं आत्मा हूँ, मुझे रागादिक नहीं करना चाहिए। (मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 4) प्रश्न 29 - तो फिर समयग्दृष्टि जीव विषयादिक में क्यों प्रवर्तमान होता है? उत्तर - सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् भी चारित्रगुण की पर्याय निर्बल होने से जितने अंश में चारित्रमोह के उदय में युक्त होता है, उतने अंश में उसे रागादि होते हैं, किन्तु वह परवस्तु से रागादि का होना नहीं मानता। सम्यग्दृष्टि जीव को देहादि परपदार्थ, द्रव्यकर्म तथा शुभाशुभ राग में एकत्वबुद्धि नहीं होती। प्रश्न 30 - सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् देशचारित्र अथवा सकलचारित्र का पुरुषार्थ कब प्रगट होता है? उत्तर - धर्मी जीव अपने पुरुषार्थ से धर्मकार्यों में तथा वैराग्यादि की भावना में (एकाग्रता में) ज्यों-ज्यों विशेष उपयोग को लगता है, त्यों-त्यों उसके बल से चारित्रमोह मन्द होता जाता है - इस प्रकार यथार्थ पुरुषार्थ में वृद्धि होने में देशचरित्र प्रगट होता है और विशेष शुद्धि होने पर सकलचारित्र का पुरुषार्थ प्रगट होता है।
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy