________________
326
प्रकरण आठवाँ
है; परसत्ता और परस्वरूप को अपना कार्य न मानता हुआ योग (मन, वचन और काय) द्वारा अपने स्वरूप में ध्यान-विचाररूप क्रिया करता है; वह कार्य करने से वह मिश्रव्यवहारी कहलाता है। केवलज्ञानी (जीव) यथाख्यातचारित्र के बल द्वारा शुद्धात्मस्वरूप में रमणशील है, इसलिए वह शुद्ध व्यवहारी कहलाता है; उसमें योगारूढ़ दशा विद्यमान है; इसलिए उसे व्यवहारी नाम दिया है। शुद्ध व्यवहार की मर्यादा तेरहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक जानना; जैसे - असिद्धत्वपरिणमनत्वात् व्यवहारः।
जहाँ तक मिथ्यात्व अवस्था है, वहाँ तक अशुद्ध निश्चयात्मक द्रव्य अशुद्ध व्यवहारी है; सम्यग्दृष्टि होने पर मात्र चतुर्थ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक मिश्र निश्चयात्मक जीवद्रव्य मिश्र व्यवहार है, और केवलज्ञानी शुद्ध निश्चयात्मक शुद्ध व्यवहारी है।
(श्री परमार्थ वचनिका) प्रश्न 65 - अध्यात्म शास्त्रों में व्यवहार को अभूतार्थअसत्यार्थ कहा है, उसका क्या अर्थ समझना?
उत्तर - (1) अध्यात्मशास्त्र में निश्चयनय की अपेक्षा से व्यवहारनय को अभूतार्थ-असत्यार्थ कहा है, किन्तु उसका अर्थ यह नहीं है कि व्यवहारनय है ही नहीं और न कोई उसका विषय है अर्थात् सर्वथा कोई वस्तु ही नहीं है।
(2) यहाँ कोई कहे कि - पर्याय भी द्रव्य के ही भेद हैं, अवस्तु तो नहीं है तो उसे व्यवहार कैसे कहा जा सकता है ?
समाधान - यह तो ठीक है, किन्तु यहाँ द्रव्यदृष्टि से अभेद को प्रधान कहकर उपदेश देते हैं। अभेददृष्टि में गौण कहने से ही