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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला 325 एकान्तरूप से साधकर मोक्षमार्ग दर्शाते हैं; अध्यात्म अङ्ग को व्यवहार से भी न जाने, यह मूढ़ जीव का स्वभाव है। उसे उस प्रकार सूझेगा ही कहाँ से? क्योंकि आगम अङ्ग बाह्य क्रियारूप प्रत्यक्ष प्रमाण है; उसका स्वरूप साधना उसे सरल है; वह बाह्य क्रिया करता हुआ मूढजीव अपने को मोक्षमार्ग का अधिकारी मानता है, किन्तु अन्तरगर्भित अध्यात्मरूप क्रिया, जो अन्तर्दृष्टि ग्राह्य है, उस क्रिया को मूढ जीव नहीं जानते, क्योंकि अर्न्तदृष्टि के अभाव से अन्तरक्रिया दृष्टिगोचर नहीं हो सकती; इसलिए मिथ्यादृष्टि जीव (चाहे जितनी बाह्यक्रिया करता हो, तथापि) मोक्षमार्ग साधने में असमर्थ है... सम्यग्दृष्टि जीव अन्तर्दृष्टि द्वारा मोक्ष-पद्धति को साधना जानता है। वह बाह्य क्रिया को बाह्य निमित्तरूप मानता है। वे निमित्त तो नाना प्रकार के हैं - एक रूप नहीं हैं, इसलिए अन्तर्दृष्टि के प्रमाण में मोक्षमार्ग साधता है। सम्यगज्ञान (स्वसंवेदन) और स्वरूपाचरण की कणिका जागृत होने पर मोक्षमार्ग सच्चा है। मोक्षमार्ग साधना, वह व्यवहार और शुद्ध द्रव्य अक्रियारूप, वह निश्चय है - इस प्रकार सम्यग्दृष्टि निश्चय-व्यवहार का स्वरूप जानता है... (श्री बनारसीदासजी रचित परमार्थ वचनिका) (2) मिथ्यादृष्टि जीव अपना स्वरूप नहीं जानता, इसलिए परस्वरूप में मग्न होकर परकार्य को तथा परस्वरूप को अपना मानता है - ऐसा कार्य करने के कारण वह अशुद्ध व्यवहारी बहलाता है। सम्यग्दृष्टि अपने स्वरूप को परोक्ष प्रमाण द्वारा अनुभव करता
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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