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________________ 316 प्रकरण आठवाँ प्रश्न 56 - निश्चय और व्यवहारनय दोनों के ग्रहण-त्याग में क्या विवेक रखना आवश्यक है ? उत्तर - ज्ञान दोनों नयों का करना, किन्तु उनमें परमार्थ निश्चयनय आदरणीय है - ऐसी श्रद्धा करना। श्री मोक्षपाहुड़ में कहा है कि - जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकजमि। जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे ॥31॥ अर्थात् - जो योगी व्यवहार में सोता है, वह अपने कार्य में जागता है, और जो व्यवहार में जागृत रहता है, वह अपने कार्य में (आत्मकार्य में) सोता है। 'व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्य को; उनके भावों को तथा उनके कारण-कार्यादिक को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है, इसलिए ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व है; इसलिए उसका त्याग करना चाहिए।' 'निश्चयनय उनका यथावत् निरूपण करता है तथा किसी का किसी में मिलाता नहीं है, इसलिए ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है; इसलिए उसका श्रद्धान करना चाहिए।' 'निश्चय का निश्चयरूप तथा व्यवहार का व्यवहाररूप श्रद्धान करना योग्य है, किन्तु एक ही नय का श्रद्धान होने से एकान्त मिथ्यात्व होता है।' 'निश्चय द्वारा जो निरूपण किया हो, उसे तो सत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान अङ्गीकार करना, तथा व्यवहारनय द्वारा जो निरूपण
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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