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________________ 314 प्रकरण आठवाँ असत्यार्थ । पदार्थ का जैसा स्वरूप न हो, वैसा अनेक कल्पना करके व्यवहारनय प्रकट करता है, इसलिए उसे अभूतार्थ कहा जाता है; जैसे मृषावादी तुच्छ भी (किञ्चित् भी) कारण का छल पा जाए तो अनेक कल्पना करके तादृश कर दिखाता है; उसी प्रकार यद्यपि जीव और पुद्गल की सत्ता भिन्न है, स्वभाव भिन्न है, प्रदेश भिन्न है, तथापि एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध का छल पाकर व्यवहारनय, आत्मद्रव्य को शरीरादिक परद्रव्य के साथ एकत्व बतलाता है; इसलिए वह व्यवहारनय असत्यार्थ है। मुक्तदशा में व्यवहारनय स्वयं ही, जीव और शरीर दोनों भिन्न हैं - ऐसा प्रकाशित करता है... कलकत्ता से प्रकशित स्व० पण्डित टोडरमलजी कृत मूल टीकावाला ग्रन्थ (पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, पृ० 6-7) प्रश्न 54 - आध्यात्मिकदृष्टि से व्यवहारनय का स्वरूप कहिये? उत्तर - पञ्चाध्यायी भाग 1, गाथा 525 से 551 में व्यवहारनय के चार प्रकारों का वर्णन किया है। उसका साररूप वर्णन इस प्रकार है - 1. उपचरित-सद्भूतव्यवहारनय - 'ज्ञान पर को जानता है' - ऐसा कहना, अथवा ज्ञान में राग ज्ञात होने पर 'राग का ज्ञान है' - ऐसा कहना, अथवा ज्ञातास्वभाव के भानपूर्वक ज्ञानी विकार को भी जानता है' - ऐसा कहना, वह उपचरित-सद्भूतव्यवहारनय का कथन है। 2. अनुपचरित-सद्भूतव्यवहारनय - ज्ञान और आत्मा इत्यादि गुण-गुणी के भेद करना, वह अनुपचरित-सद्भूतव्यवहारनय है।
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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