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________________ प्रकरण पहला किस प्रकार? गुण-पर्यायों को द्रवित हुए बिना द्रव्य नहीं होता; इसलिए द्रवित होना द्रव्यत्वगुण से है; (द्रव्य स्वयं) द्रवित होकर गुण-पर्याय में व्याप्त होकर उसे प्रगट करता है, इसलिए द्रव्यत्व (गुण) की विवक्षा से 'द्रव्यत्वयोगाद् द्रव्यम्' - द्रव्यत्व के सम्बन्ध से द्रव्य है... द्रव्य, गुण-पर्यायों को द्रवित करता है; गुण -पर्याय, द्रव्य को द्रवित रखते हैं, इसलिए वे 'द्रव्य' नाम प्राप्त करते हैं... अपने स्वभावरूप से द्रव्य स्वतः परिणमित होता है, इसलिए (वह) स्वतः सिद्ध कहलाता है। (- इस प्रकार 'सत्ता', 'गुण-पर्यायवाला', 'गुणो का समुदाय', 'द्रव्यत्व का सम्बन्ध' आदि लक्षण प्रमाण हैं। उनमें से किसी एक को जब मुख्य करके कहा जाता है, तब शेष लक्षण भी उसमें गर्भितरूप से आ ही जाते हैं - ऐसा जानना।) (चिद्विलास, पृष्ठ 3 से) विशेषार्थ - (1) यहाँ मुख्यता से द्रव्य के लक्षण का विचार किया गया है। ऐसा करते हुए ग्रन्थकार ने विविध आचार्यों के अभिप्रायानुसार तीन लक्षण कहे हैं। प्रथम लक्षण में द्रव्य को गुण-पर्यायवाला बतलाया है। बात यह है कि प्रत्येक द्रव्य अनन्त गुणों का और क्रमरूप होनेवाली उनकी पर्यायों का पिण्डमात्र है। इसका अर्थ यह है कि जिससे धारा में (प्रवाह में) एकतारूप बनी रहती है, वह गुण है और जिससे उसमें भेद प्रतीत होते हैं, वह पर्याय है। जीव में ज्ञान की धारा का विच्छेद कभी नहीं होता, इसलिए ज्ञान, वह गुण हैं, किन्तु कभी-कभी वह मतिज्ञानरूप होता है और कभी अन्यरूप होता है, इसलिए मतिज्ञानादि उसकी पर्यायें हैं । द्रव्य सदैव गुण-पर्यायोंरूप रहता है, इसलिए उसे गुण-पर्यायोंवाला कहा है।
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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