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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
हुआ प्रयोजनवान कहते हैं।
धर्मी को द्रव्य का शुद्धस्वभाव लक्ष्य में आ गया है; इसलिए सम्यक्त्वादि निर्मल कार्य होते हैं और जो राग शेष रहा है, उसे भी वे अपना परिणमन जानते हैं परन्तु अब उसकी मुख्यता नहीं है। मुख्यता तो स्वभाव की हो गयी है। पहले अज्ञानदशा में मिथ्यात्वादि परिणाम थे, वे भी स्वद्रव्य के अशुद्धउपादान के आश्रय से ही थे परन्तु जब निश्चित किया कि मेरे परिणाम अपने द्रव्य के ही आश्रय से होते हैं, तब उस जीव को मिथ्यात्वपरिणाम नहीं रहते; उसे तो सम्यक्त्वादिरूप परिणाम ही होते हैं। __ अब, जो रागपरिणमन, साधकपर्याय में शेष रहा, उसमें यद्यपि उसे एकत्वबुद्धि नहीं है, तथापि वह परिणमन अपना है - ऐसा वह जानता है। ऐसा व्यवहार का ज्ञान, उस काल का प्रयोजनवान है। सम्यग्ज्ञान होता है, तब निश्चय-व्यवहार का यथार्थ स्वरूप ज्ञात होता है, तब द्रव्य-पर्याय का स्वरूप ज्ञात होता है; तब कर्ता-कर्म का स्वरूप ज्ञात होता है और स्वद्रव्य के लक्ष्य से मोक्षमार्गरूप कार्य प्रगट होता है; उसका कर्ता, आत्मा स्वयं है।
इस प्रकार इस 211 वें कलश में आचार्यदेव ने चार बोलों द्वारा स्पष्टरूप से अलौकिक वस्तुस्वरूप समझाया है, उसका विवेचन पूर्ण हुआ।..
( श्रावकधर्म प्रकाश में परिशिष्ट प्रवचन)