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परिशिष्ट : स्वतन्त्रता की घोषणा
- ऐसा दिखायी देता है। कर्म का मन्द उदय हो, इसलिए मन्दराग
और तीव्र उदय हो, इसलिए तीव्रराग - ऐसा नहीं है। अवस्था एकरूप नहीं रहती, परन्तु अपनी योग्यता से मन्द-तीव्ररूप से बदलती है - ऐसा स्वभाव वस्तु का अपना है, वह कहीं पर के कारण नहीं है।
भगवान के निकट जाकर पूजा करे या शास्त्रश्रवण करे, उस समय अलग परिणाम होते हैं और घर पहुँचने पर अलग परिणाम हो जाते हैं, तो क्या संयोग के कारण वे परिणाम बदले? नहीं; वस्तु एकरूप न रहकर उसके परिणाम बदलते रहें - ऐसा ही उसका स्वभाव है; उन परिणामों का बदलना वस्तु के आश्रय से ही होता है; संयोग के आश्रय से नहीं। इस प्रकार वस्तु स्वयं अपने परिणाम की कर्ता है - यह निश्चित सिद्धान्त है।
इन चार बोलों के सिद्धान्तानुसार वस्तुस्वरूप को समझे तो मिथ्यात्व की जड़ें उखड़ जाएँ और पराश्रितबुद्धि छूट जाए। ऐसे स्वभाव की प्रतीति होने से अखण्ड स्व-वस्तु पर लक्ष्य जाता है और सम्यग्ज्ञान प्रगट होता है, उस सम्यग्ज्ञानपरिणाम का कर्ता आत्मा स्वयं है। पहले अज्ञानपरिणाम भी वस्तु के ही आश्रय से थे और अब ज्ञानपरिणाम हुए, वे भी वस्तु के ही आश्रय से हैं।
मेरी पर्याय का कर्ता, दूसरा कोई नहीं है; मेरा द्रव्य परिणमित होकर मेरी पर्याय का कर्ता होता है - ऐसा निश्चय करने से स्वद्रव्य पर लक्ष्य जाता है और भेदज्ञान तथा सम्यग्ज्ञान होता है। अब, उस काल में चारित्रदोष से कुछ रागादि परिणाम रहे, वे भी अशुद्धनिश्चयनय से आत्मा का परिणमन होने से आत्मा का कार्य है - ऐसा धर्मीजीव जानता है; उसे जानने की अपेक्षा से व्यवहार को उस काल में जाना