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परिशिष्ट : स्वतन्त्रता की घोषणा
पर भी इच्छापरिणाम के आश्रित ज्ञानपरिणाम नहीं हैं। ज्ञान, वह आत्मा का परिणाम है, इच्छा का नहीं; इसी प्रकार इच्छा, वह आत्मा का परिणाम है. ज्ञान का नहीं। इच्छा को जाननेवाला ज्ञान. वह इच्छा का कार्य नहीं है; उसी प्रकार वह ज्ञान, इच्छा को उत्पन्न भी नहीं करता। इच्छापरिणाम, आत्मा का कार्य अवश्य है परन्तु ज्ञान का कार्य नहीं है। भिन्न-भिन्न गुण के परिणाम भिन्न-भिन्न हैं। एक ही द्रव्य में होने पर भी एक गुण के आश्रित दूसरे गुण के परिणाम नहीं हैं।
अहो! कितनी स्वतन्त्रता!! इसमें पर के आश्रय की बात ही कहाँ रही?
आत्मा में चारित्रगुण इत्यादि अनन्त गुण हैं। उनमें चारित्र का विकृतपरिणाम इच्छा है, वह चारित्रगुण के आश्रित है और उस समय इच्छा का ज्ञान हुआ, वह ज्ञानगुणरूप परिणामी का परिणाम है; वह कहीं इच्छा के परिणाम के आश्रित नहीं है। इस प्रकार इच्छापरिणाम और ज्ञानपरिणाम - इन दोनों का भिन्न-भिन्न परिणमन है; दोनों एक-दूसरे के आश्रित नहीं है। __ भाई ! सत् जैसा है, उसी प्रकार उसका ज्ञान करे तो सत् ज्ञान हो और सत् का ज्ञान करे तो उसका बहमान एवं यथार्थ का आदर प्रगट हो, रुचि हो, श्रद्धा दृढ़ हो और उसमें स्थिरता हो; उसे ही धर्म कहा जाता है। सत् से विपरीत ज्ञान करे, उसे धर्म नहीं होता। स्व में स्थिरता ही मूलधर्म है परन्तु वस्तुस्वरूप के सच्चे ज्ञान बिना स्थिरता कहाँ करेगा?
आत्मा और शरीरादि रजकण भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं: शरीर की अवस्था, हलन-चलन, बोलना - ये सब परिणामी पुद्गलों के परिणाम हैं; उन पुद्गलों के आश्रिय वे परिणाम उत्पन्न हुए हैं, इच्छा