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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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हैं नहीं, परन्तु उस वस्तु में भी उसके एक परिणाम के आश्रित दूसरे परिणाम नहीं हैं। परिणामी वस्तु के आश्रित ही परिणाम हैं - यह महान् सिद्धान्त है।
प्रतिक्षण इच्छा, भाषा और ज्ञान - यह तीनों एक साथ होते हुए भी इच्छा और ज्ञान, जीव के आश्रित हैं और भाषा, जड़ के आश्रित हैं; इच्छा के कारण भाषा हुई और भाषा के कारण ज्ञान हुआ - ऐसा नहीं है; उसी प्रकार इच्छा के आश्रित भी ज्ञान नहीं है। इच्छा और ज्ञान - ये दोनों आत्मा के परिणाम हैं, तथापि एक के आश्रित दूसरे के परिणाम नहीं हैं। ज्ञानपरिणाम और इच्छापरिणाम दोनों भिन्नभिन्न हैं । जो ज्ञान हुआ, वह इच्छा का कार्य नहीं है और जो इच्छा हुई, वह ज्ञान का कार्य नहीं है । जहाँ इच्छा भी ज्ञान का कार्य नहीं, वहाँ जड़ भाषा आदि तो ज्ञान के कार्य कहाँ से हो सकते हैं? वे तो जड़ के ही कार्य हैं। ___ जगत् में जो भी कार्य होते हैं, वे सत् की अवस्थाएँ हैं। किसी वस्तु के ही परिणाम होते हैं परन्तु वस्तु के बिना अधर से नहीं होते। परिणामी का परिणाम होता है, नित्य स्थित वस्तु के आश्रित परिणाम होते हैं; पर के आश्रित नहीं होते।
परमाणु में होंठों का हिलना और भाषा का परिणमन - ये दोनों भी भिन्न वस्तुएँ हैं। आत्मा में इच्छा और ज्ञान - ये दोनों परिणाम भी भिन्न-भिन्न हैं। ___होंठ हिलने के आश्रित, भाषा की पर्याय नहीं है। होंठ का हिलना, वह होंठ के पुद्गलों के आश्रित है; भाषा का परिणमन, वह भाषा के पुद्गलों के आश्रित है। होंठ और भाषा; इच्छा और ज्ञान - इन चारों का काल एक होने पर भी चारों परिणाम अलग हैं।
उसमें भी इच्छा और ज्ञान - ये दोनों परिणाम, आत्माश्रित होने