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__ आत्मार्थी मुमुक्षु के लिए पूज्य गुरुदेवश्री का सन्देश वीतराग वाणी का तात्पर्य : स्व-सन्मुखता
- आत्मा, परद्रव्य का कर्ता या भोक्ता नहीं - ऐसा बताकर परद्रव्य का कर्ता-भोक्तापना छुड़ाकर, स्व-सन्मुखता कराना है। ___ - विकार का कर्ता कर्म नहीं है - ऐसा कहकर कर्माधीन दृष्टि छुड़ाना है।
-विकार का कर्ता कर्म है, जीव नहीं है। कर्म व्यापक होकर विकार करता है - ऐसा कहकर एक समय के उपाधिभाव से भेदज्ञान कराकर, द्रव्य पर दृष्टि कराना है।
- तत समय की योग्यता से जो विकार होनेवाला था. वही हआ है - ऐसा कहकर एक समय के विकार का लक्ष्य छुड़ाकर, दृष्टि को द्रव्य पर लगाना है।
-विकार भी जो क्रमबद्ध में था, वही हुआ है - इस कथन से क्रमबद्धपर्याय के स्वकाल का सत् परिणमन व विकार का अकर्तापना बताकर, ज्ञातास्वभाव की दृष्टि कराना है।
- निर्मलपरिणाम भी क्रमबद्ध हैं - ऐसा कहकर शुद्धपर्याय के एक अंश का लक्ष्य छुड़ाकर, त्रिकाली ध्रुव का लक्ष्य कराना है। ____ - पर्याय का कर्ता परद्रव्य नहीं है - ऐसा कहकर पर से दृष्टि हटाकर स्वद्रव्य में लगाना है।
- पर्याय का कर्ता स्वद्रव्य भी नहीं है, पर्याय अपने षट्कारक से स्वतन्त्र होती है - इस प्रकार पर्याय की स्वतन्त्रता बताकर, उसका लक्ष्य छुड़ाकर, दृष्टि को द्रव्य-सन्मख करानाहै।
-विकार या निर्मलपर्याय का कर्ता ध्रव द्रव्य नहीं है, पर्याय ही पर्याय का कर्ता है। ध्रुव द्रव्य, बन्ध-मोक्ष परिणाम का कर्ता भी नहीं है - ऐसा बताकर पर्याय की सन्मुखता छुड़ाकर, ध्रुव की सन्मुखता कराना है।