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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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उत्तर - अनेक निमित्तकारणों में जो मुख्य हो, उसे अन्तरङ्ग (निमित्त) कारण कहा जाता है और गौण निमित्त हो, उसे बहिरङ्ग (निमित्त) कारण कहा जाता है। उसे दृष्टान्त -
(1) कर्म बन्धन के लिए आत्मा के योग को बहिरङ्ग (निमित्त) कारण और जीव के रागादिभाव को अन्तरङ्ग (निमित्त) कारण कहते हैं।
(पञ्चास्तिकाय, गाथा 148 की टीका) (2) ...और व्रत, दानादिक तो कषाय कम करने के बाह्य निमित्त साधन हैं और करणानुयोग का अभ्यास करने से वहाँ उपयोग लग जावे, तब रागादिक दूर होते हैं; इसलिए वह अन्तरङ्ग निमित्त साधन है... (देहली से प्रकाशित मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ427)
(3) ...इस सम्यक्त्वपरिणाम का बाह्य सहकारीकारण वीतराग-सर्वज्ञ के मुखकमल से निकला हुआ, समस्त वस्तु के प्रतिपादन में समर्थ, ऐसा द्रव्यश्रुतरूप तत्त्वज्ञान ही है। जो मुमुक्षु हैं, उनको भी उपचार से पदार्थ निर्णय के हेतुपने के कारण (सम्यक्त्व परिणाम का) अन्तरङ्ग हेतु कहा है, क्योंकि उनको दर्शनमोहनीय कर्म के क्षयादिक हैं। (नियमसार, गाथा 51 से 55 की टीका)
(4) किसी पुरुष को बन्धन का अन्तरङ्ग निमित्त कर्म है, बन्धन का बहिरङ्ग हेतु किसी का काय व्यापार है; छेदन का भी अन्तरङ्ग (निमित्त) कारण कर्मोदय हैं; बहिरङ्ग कारण प्रमत्तजीव की काय क्रिया है; मरण का भी अन्तरङ्ग (निमित्त) हेतु आन्तरिक (निकट) सम्बन्ध का (आयुष्य का) क्षय है; बहिरङ्ग कारण किसी की कायविकृति है...
(नियमसार, गाथा 68 की टीका)