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प्रकरण छठवाँ
सुगुरु कहैं जग में रहै, पुग्गल संग सदीव; सहज सुद्ध परिनमनिकौ, अवसर लहै न जीव । तातैं चिद्भावनि विषै, समरथ चेतन राउ, राग - विरोध मिथ्यात में समकित में सिव भाउ ।
( समयसार नाटक )
अर्थात् इस प्रकार कोई मनुष्य विपरीत पक्ष ग्रहण करके श्रद्धान करता है कि वह राग - विरोधरूप भावों से कभी भिन्न हो ही नहीं सकता ।
सद्गुरु कहते हैं कि पुद्गल के संयोग से रागादि नहीं है । यदि हो तो जगत् में पुद्गल का सङ्ग सदैव है तो जीव को सहज शुद्धपरिणाम करने का अवसर ही नहीं मिलेगा; इसीलिए अपने (शुद्ध या अशुद्ध) चैतन्य परिणाम में चेतनराजा ही समर्थ है। राग - विरोधरूप परिणाम अपने मिथ्यात्वभाव में हैं और अपने सम्यक्त्व-परिणाम में शिव-भाव, अर्थात् ज्ञान - दर्शन - सुख आदि उत्पन्न होते हैं ।
(2) अविद्या जड़ लघुशक्ति से तेरी महान् शक्ति का घात नहीं हो सकता परन्तु तेरी शुद्ध शक्ति भी बड़ी, तेरी अशुद्ध शक्ति भी बड़ी; तेरा (विपरीत) चिन्तवन तेरे गले पड़ा और उससे पर को देखकर आत्मा भूला; यह अविद्या तेरी ही फैलाई हुई है; तू अविद्यारूप कर्म में न पड़कर स्व को न जोड़े तो जड़ का कुछ जोर नहीं है; इसलिए अपरम्पार शक्ति तेरी है...
(श्री दीपचन्दजी कृत अनुभवप्रकाश ) प्रश्न 31 - संज्ञी पञ्चेन्द्रियपना, मनुष्यपना, कर्म का मन्द