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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला क्षायिकभाव - यह तीनों सिद्ध करते हैं । (मोक्षशास्त्र, हिन्दी आवृत्ति अध्याय - 2, सूत्र 1 की टीका) (9) बन्ध का संक्षिप्त स्वरूप ऐसा है कि 131 रागपरिणाम ही आत्मा का कर्म है, वही पुण्य पापरूप द्वैत है; रागपरिणाम का ही आत्मा कर्ता है, उसी का ग्रहण- त्याग करनेवाला है; - यह शुद्धद्रव्य के निरूपणस्वरूप निश्चयनय है..... (प्रवचनसार, गाथा 189 की टीका) (10) मनुष्यादि पर्यायों में कर्म कही जीव के स्वभावका हनन नहीं करता या उसे आच्छादित नहीं करता परन्तु वहाँ जीव स्वयं ही अपने दोष से कर्मानुसार परिणमित होता है, इसलिए उसे अपने स्वभाव की उपलब्धि नहीं है। जिस प्रकार पानी का प्रवाह प्रदेश की अपेक्षा से वृक्षोंरूप परिणमित होता हुआ अपने प्रवाहीपनेरूप स्वभाव को उपलब्ध नहीं करता - अनुभव नहीं करता, और स्वाद की अपेक्षा से वृक्षोंरूप परिणमित होता हुआ अपने स्वादिष्टपनेरूप स्वभाव को उपलब्ध नहीं करता; उसी प्रकार आत्मा भी प्रदेश की अपेक्षा से स्व-कर्म अनुसार परिणमित होता हुआ अपने अमूर्तपनेरूप स्वभाव को उपलब्ध नहीं करता और भाव की अपेक्षा से स्व- कर्मरूप परिणमित होता हुआ उपरागरहित विशुद्धिवानपनेरूप अपने स्वभाव को उपलब्ध नहीं करता। इससे ऐसा निर्धार होता है कि मनुष्यादि पर्यायों में जीवों को अपने ही दोष से अपने स्वभाव की अनुपलब्धि है, कर्मा अन्य किसी कारण से नहीं। 'कर्म जीव के स्वभाव का पराभव करते हैं' - ऐसा कहना तो उपचार कथन है, परमार्थ ऐसा नहीं है । (प्रवचनसार, गाथा 118 का भावार्थ )
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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