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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला करता आ रहा है; उसने धर्म कभी नहीं किया, तथापि वर्तमान में नये पुरुषार्थ से धर्म कर सकता है, क्योंकि वर्तमान पर्याय का पूर्व पर्याय में अभाव वर्तता है । 109 (2) प्रध्वंसाभाव से ऐसा समझना चाहिए कि वर्तमान अवस्था में धर्म नहीं किया है, फिर भी जीव नवीन पुरुषार्थ से अधर्मदशा का तुरन्त ही व्यय (अभाव) करके अपने में सत्य धर्म प्रगट कर सकता है। (3) अन्योन्याभाव से ऐसा समझना चाहिए कि एक पुद्गलद्रव्य की वर्तमान पर्याय दूसरे पुद्गलद्रव्य की वर्तमान पर्याय का (परस्पर अभाव के कारण) कुछ नहीं कर सकती; अर्थात् एक-दूसरे को असर, सहाय, मदद, प्रभाव, प्रेरणादि कुछ नहीं कर सकते। जब सजातियों में भी पर का कुछ नहीं कर सकते, तो वे (पुद्गल) जीव का क्या कर सकेंगे ? (4) अत्यन्ताभाव ऐसा समझना चाहिए कि प्रत्येक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का त्रिकाल अभाव है, इसलिए एक द्रव्य अन्य द्रव्य की पर्याय का कुछ नहीं कर सकता, अर्थात् मदद, सहायता, असर, प्रभाव, प्रेरणादि कुछ नहीं कर सकते । शास्त्रों में अन्य का करने-कराने आदि का जो भी कथन है वह 'घी की घड़े' की भाँति मात्र व्यवहार का ज्ञान कराता है। वह सत्यार्थ स्वरूप नहीं है - ऐसा समझना चाहिए। प्रश्न 21 – 'ज्ञानक्रियाभ्याम्मोक्षः ' - इस सूत्र का अर्थ: - 4 'आत्मा का ज्ञान और शरीर की क्रिया- इन दोनों से मोक्ष होता है' - ऐसा कहनेवाला किस अभाव को नहीं मानता ?
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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