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________________ दोनों नयों की सफलता जीव का स्वरूप दो नयों से बराबर ज्ञात होता है। अकेले | द्रव्यार्थिकनय या अकेले पर्यायार्थिकनय से ज्ञात नहीं होता; इसलिए दोनों नयों का उपदेश ग्रहण करने योग्य है। एकान्त द्रव्य को ही स्वीकार करे और पर्याय को स्वीकार न करे, | तो पर्याय के बिना द्रव्य का स्वीकार किसने किया? काहे में किया? और मात्र पर्याय को ही स्वीकार करे, द्रव्य को स्वीकार न करे तो पर्याय कहाँ दृष्टि लगाकर एकाग्र होगी ? इसलिए दोनों नयों का उपदेश स्वीकार | करके द्रव्य-पर्याय की सन्धि करने योग्य है । द्रव्य - पर्याय की सन्धि का अर्थ क्या? पर्याय को पृथक् करके लक्ष में न लेते हुए, अन्तर्मुख करके द्रव्य के साथ एकाकार करना अर्थात् द्रव्य-पर्याय के भेद का विकल्प तोड़कर एकतारूप निर्विकल्प- अनुभव करना ही द्रव्य-पर्याय की सन्धि है - यही दोनों नयों की सफलता है। पर्याय को जानते हुए उसी के विकल्प में रुक जाए, तो वह नय की | सफलता नहीं है; उसीप्रकार द्रव्य को जानते हुए यदि उसमें एकाग्रता न करे तो वह भी नय की सफलता नहीं है। द्रव्य-पर्याय दोनों को जानकर दोनों के विकल्प तोड़कर पर्याय को द्रव्य में अन्तर्लीन, अभेद, एकाकार करके अनुभव करने में ही दोनों नयों की सफलता है। - पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामी ( ज्ञानगोष्ठी, कवरपृष्ठ - ६ ) पर्याय की स्वतंत्रता प्रश्न : शास्त्र में पर्याय को अभूतार्थ क्यों कहा है? क्या उसकी सत्ता नहीं हैं? उत्तर : त्रिकालीस्वभाव को मुख्य करके भूतार्थ कहा और पर्याय | को अभूतार्थ कहा अर्थात् पर्याय है नहीं ऐसा कहा । वहाँ पर्याय गौण करके ही 'नहीं है' ऐसा कहा; परन्तु इससे ऐसा मत समझना कि पर्याय सर्वथा हैं ही नहीं। इसी भाँति सम्यग्दृष्टि को राग नहीं, दुःख नहीं - ऐसा कहा; परन्तु इससे ऐसा मत समझना कि वर्तमान पर्याय में रागदुःख सर्वथा है ही नहीं। पर्याय में जितना राग है, उतना दुःख भी अवश्य है। जहाँ शास्त्र में ऐसा कहा है कि सम्यग्दृष्टि के राग या दुःख नहीं है, सो वह तो दृष्टि की प्रधानता से कहा; किन्तु पर्याय में जितना आनन्द है, उतना भी ज्ञान जानता है और जितना राग है, उतना दुःख भी साधक को है; ऐसा ज्ञान जानता है। यदि वर्तमान पर्याय में होनेवाले राग व दुःख को | ज्ञान न जाने तब तो धारणाज्ञान में भी भूल है। सम्यग्दृष्टि के दृष्टि का जोर बताने के लिए ऐसा भी कहा कि वह निरास्रव है; किन्तु यदि आस्रव सर्वथा न हो तब तो मुक्ति हो जाना चाहिए। कर्ता-कर्म अधिकार में ऐसा कहा कि सम्यग्दृष्टि के जो राग होता है उसका कर्त्ता पुद्गलकर्म है, आत्मा उसका कर्त्ता नहीं है; तथा प्रवचनसार में ऐसा कहा कि ज्ञानी के जो राग होता है, उसका कर्त्ता आत्मा है, राग का अधिष्ठाता आत्मा है। फिर भी एकान्त माने कि ज्ञानी राग का - दुःख का कर्त्ता भोक्ता नहीं है तो वह जीव नयविवक्षा को नहीं समझने के कारण मिथ्यादृष्टि है। एक पर्याय जितना अपने को मानना भी मिथ्यात्व है। तो फिर राग को अपना मानना, शरीर को अपना मानना, माता-पिता धनादि को | अपना मानना तो महान मिथ्यात्व है। अहा हा! अपने को बहुत बदलना पड़ेगा। अनेक प्रकार की मिथ्या मान्यताओं को छोड़कर ही आत्मसन्मुख जा सकोगे। (ज्ञानगोष्ठी, पृष्ठ- १५७-१९५८)
SR No.009452
Book TitleGunsthan Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2014
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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