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गुणस्थान-प्रवेशिका
गुणस्थानों से गमनागमन मिथ्या मारग चारि, तीनि चउ पाँच सात भनि। दुतिय एक मिथ्यात, तृतीय चौथा पहला गनि ।।१।। अव्रत मारग पाँच, तीनि दो एक सात पन । पंचम पंच सुसात, चार तिय दोय एक भन ।।२।। छट्टे षट् इक पंचम अधिक, सात आठ नव दस सुनो। तिय अध उरथ चौथे मरन, ग्यारह बार बिन दो मुनो।।३।।
ह्र पण्डित द्यानतरायजी : चरचा शतक, छन्द-४४ इस छन्द का हिन्दी में भावार्थ इसप्रकार है ह १. पहले गुणस्थान से ऊपर गमन के चार मार्ग हैं ह तीसरे, चौथे. पाँचवें और सातवें
गुणस्थानों में से किसी भी एक गुणस्थान में गमन हो सकता है। २. सासादन गुणस्थान से नीचे की ओर गमन का एक ही मार्ग है; पहले गुणस्थान
में। सासादन से गमन एकमेव मिथ्यात्व में ही होता है। तीसरे मिश्च गुणस्थान से गमन के लिए कुल दो मार्ग हैं; ऊपर की ओर चौथे
में तथा नीचे की ओर पहले में। ४. चौथे गुणस्थान से गमन के पाँच मार्ग हैं ह्र ऊपर की ओर पाँचवें और सातवें में
और नीचे की ओर तीसरे, दूसरे और पहले में। ५. पाँचवें गुणस्थान से भी पाँच मार्ग हैं ह्र ऊपर की ओर सातवें में तथा नीचे की
ओर चौथे, तीसरे, दूसरे और पहले में। ६. छठवें गुणस्थान से छह मार्ग हैं ह्र ऊपर की ओर सात में तथा नीचे की ओर
पाँचवें, चौथे, तीसरे, दूसरे और पहले गुणस्थान में। ७. उपशम श्रेणी के सन्मुख सातवें से तीन मार्ग हैं ह्र ऊपर की ओर आठवें में, गिरते
समय नीचे की ओर छठवें में और मरण हो जाय तो विग्रह गति में चौथे में। ८. उपशम श्रेणीवाले आठवें से तीन मार्ग हैं ह्र ऊपर की ओर नौवें में तथा नीचे की
ओर सातवें में और मरण अपेक्षा चौथे में। ९. उपशम श्रेणीवाले नौवें से तीन मार्ग हैं ह्र ऊपर की ओर दसवें में तथा नीचे की
ओर आठवें में और मरण अपेक्षा चौथे में। १०. उपशम श्रेणीवाले दसवें से तीन मार्ग हैं ह्र ऊपर की ओर ग्यारहवें में तथा नीचे
की ओर नौवें में और मरण अपेक्षा चौथे में। ११. ग्यारहवें से दो ही मार्ग हैं हनीचे की ओर दसवें में और मरण अपेक्षा चौथे में।
व्यवहार की वास्तविकता यहाँ व्यवहार से नर-नारकादि पर्याय ही को जीव कहा, सो पर्याय ही को जीव नहीं मान लेना। पर्याय तो जीव-पुद्गल के संयोगरूप है। वहाँ निश्चय से जीवद्रव्य भिन्न है, उस ही को जीव मानना । जीव के संयोग से शरीरादिक को भी उपचार से जीव कहा, सो कथनमात्र ही है, परमार्थ से शरीरादिक जीव होते नहीं - ऐसा ही श्रद्धान करना।
तथा अभेद आत्मा में ज्ञान-दर्शनादि भेद किये, सो उन्हें भेदरूप ही नहीं मान लेना, क्योंकि भेद तो समझाने के अर्थ किये हैं। निश्चय से आत्मा अभेद ही है; उस ही को जीव वस्तु मानना । संज्ञा-संख्यादि से भेद कहे, सो कथनमात्र ही हैं; परमार्थ से भिन्न-भिन्न हैं नहीं, - ऐसा ही श्रद्धान करना।
तथा परद्रव्य का निमित्त मिटाने की अपेक्षा से व्रत-शील-संयमादिक को मोक्षमार्ग कहा, सो इन्हीं को मोक्षमार्ग नहीं मान लेना; क्योंकि परद्रव्य का ग्रहण-त्याग आत्मा के हो तो आत्मा परद्रव्य का कर्ता-हर्ता हो जाये। परन्तु कोई द्रव्य किसी द्रव्य के आधीन है नहीं; इसलिये आत्मा जो अपने भाव रागादिक हैं, उन्हें छोड़कर वीतरागी होता है; इसलिये निश्चय से वीतरागभाव ही मोक्षमार्ग है। वीतरागभावों के और व्रतादिक के कदाचित् कार्य-कारणपना है, इसलिये व्रतादि को मोक्षमार्ग कहे. सो कथनमात्र ही है। परमार्थ से बाह्यक्रिया मोक्षमार्ग नहीं है - ऐसा ही श्रद्धान करना।
- मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २५२ पवित्रता प्राप्त करने का उपाय स्वभाव से तो सभी आत्माएँ परमपवित्र ही हैं, विकृति मात्र पर्याय में है। पर जब पर्याय परमपवित्र आत्मस्वभाव का आश्रय लेती है. तो वह भी पवित्र हो जाती है।
पर्याय के पवित्र होने का एकमात्र उपाय परमपवित्र आत्मस्वभाव का आश्रय लेना है। 'पर' के आश्रय से पर्याय में अपवित्रता और 'स्व' के आश्रय से पवित्रता प्रकट होती है। - धर्म के दशलक्षण, पृष्ठ ६८