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उपशांतमोह गुणस्थान आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६१ में उपशांतमोह गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है ह्र
कदकफलजुदजलं वा, सरए सरवाणियं व णिम्मलयं। सयलोवसंतमोहो, उवसंत कसायओ होदि॥
निर्मली फल से सहित स्वच्छ जल के समान अथवा शरदकालीन सरोवर-जल के समान सर्व मोहोपशमन के समय व्यक्त होनेवाली पूर्ण वीतरागी दशा को उपशांतमोह गुणस्थान कहते हैं।
इसका ही अपर नाम उपशांत कषाय और पूर्ण नाम उपशांतकषायवीतरागछद्मस्थ है।
उपशांतकषाय वीतरागछद्मस्थ संबंधी स्पष्टीकरण - उपशांत कषाय = दबी हुई कषाय । वीतराग = वर्तमान में सभी रागादि से रहित । छद्म = ज्ञानावरण-दर्शनावरण के सद्भाव में विद्यमान अल्प ज्ञान-दर्शन में, + स्थ = स्थित रहने वाला। अर्थात् ज्ञानावरण-दर्शनावरण के सद्भाव में रहनेवाला।
सर्व कषाय उपशांत हो जाने से वर्तमान में सर्व रागादि के अभावरूप, वीतरागता प्रगट होने पर भी ज्ञानावरणादि का क्षयोपशम होने से छद्मस्थ = अल्पज्ञ ही है।
सम्यक्त्व - द्वितीयोपशम-सम्यक्त्व अथवा क्षायिक-सम्यक्त्व । चारित्र - औपशमिक यथाख्यात-चारित्र है।
काल - उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त । यह उत्कृष्टकाल दो क्षुद्रभव प्रमाण है। मरण की अपेक्षा जघन्य काल एक समय है।
गमनागमन - उपशांतमोह मुनिराज के निजशुद्धात्मसन्मुख पुरुषार्थ
उपशान्तमोह गुणस्थान की यहाँ तक ही प्रगति करने की योग्यता होने से ऊपर गमन नहीं होता।
नीचे की ओर गमन दसवें गुणस्थान में होता है। मरण की अपेक्षा गमन चतुर्थ गुणस्थान में भी होता है।
यहाँ उपशमक दसवें गुणस्थान से ही आगमन होता है।
विशेषता - १. यहाँ ईर्यापथास्रव (सातावेदनीय का) ही होता है। सांपरायिकासव नहीं होता; क्योंकि कषाय-नोकषाय परिणाम का सर्वथा अभाव है। सूक्ष्मलोभरूप मोह का अभाव दसवें गुणस्थान के अन्त समय में हआ है।
२. औपशमिक भावों का सद्भाव यहाँ (उपशांतमोह) तक ही होता है।
३. वीतराग शब्द आदि-दीपक है। यहाँ से ऊपर के सभी गुणस्थानवर्ती जीव वीतरागी ही होते हैं। इसके नीचे के अर्थात् चौथे गुणस्थान से दसवें तक सभी गुणस्थानवर्ती जीव मिश्र (सरागी + वीतरागी) और प्रथम से तीसरे गुणस्थान तक सब जीव मात्र सरागी ही होते हैं।
ग्यारहवें गुणस्थान से पतन के दो कारण हैं - कालक्षय और भव (आयु) क्षय । आयुक्षय से गिरनेवाला अक्रम से चौथे गुणस्थान में जाता है।
कालक्षय से गिरते समय नीचे-नीचे के गुणस्थानों की प्राप्ति क्रमशः छठे तक होती है। पीछे अनेक मार्ग हैं। ग्यारहवें गुणस्थान के संबंध में विशेष :
...बहुरि या प्रकार संक्लेश-विशुद्धता के निमित्त करि उपशांत कषाय तैं पड़ना-चढ़ना न हो; जातें तहाँ परिणाम अवस्थित विशुद्धता लिए वर्ते हैं। बहुरि तहाँ तैं जो पड़ना हो है, सो तिस गुणस्थान का काल भए पीछे नियम तैं उपशम काल का क्षय होइ, तिसके निमित्त तैं हो है।
विशुद्ध परिणामनि की हानि के निमित्त तैं तहाँ तैं नाही पड़े हैं वा अन्य कोई निमित्त तैं नाही पड़े हैं - ऐसा जानना।
लब्धिसार गाथा ३१० की संस्कृत टीका की पंडितप्रवर टोडरमलजी कृत सम्यग्ज्ञानचंद्रिका की भाषा टीका से।