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________________ १० सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६० साम्पराय गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है ह्र अणुलोहं वेदंतो, जीवो उवसामगो व खवगो वा । सो सुहमसांपराओ, जहरखादेणूणओ किंचि ॥ धुले हुए कौसुंभी वस्त्र की सूक्ष्म लालिमा के समान सूक्ष्म लोभ का वेदन करनेवाले उपशमक अथवा क्षपक जीवों के यथाख्यात चारित्र से किंचित् न्यून वीतराग परिणामों को सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान कहते हैं । इसका पूर्ण नाम सूक्ष्मसांपराय प्रविष्ट शुद्धि संयत है। भेद - उपशम और क्षपक श्रेणी की अपेक्षा इसके तत्संबंधी दो भेद हैं- उपशमक- सूक्ष्मसांपराय, क्षपक- सूक्ष्मसांपराय । सूक्ष्मसांपराय प्रविष्ट शुद्धिसंयत संबंधी स्पष्टीकरण सूक्ष्म अत्यन्त हीन अनुभाग। सांपराय = कषाय । प्रविष्ट = प्रवेश प्राप्त | शुद्धि शुद्धोपयोग । संयत = स्वरूप में सम्यक्तया लीन । अत्यन्त हीन अनुभाग युक्त लोभ कषाय के वेदन सहित, विशिष्ट वृद्धिंगत, स्वरूप में लीन, शुद्धोपयोग परिणामयुक्त जीव सूक्ष्मसांपराय प्रविष्ट शुद्धि-संयत है । सम्यक्त्व - द्वितीयोपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व में से एक । चारित्र - क्षायोपशमिक चारित्र । उपचार से औपशमिक या क्षायिकचारित्र भी कहते हैं। सूक्ष्म = ४ अप्रत्याख्यानावरण, ४ प्रत्याख्यानावरण, लोभ कषाय बिना संज्वलन कषाय त्रिक और नौ नोकषायों के उपशम अथवा क्षय के सद्भाव में सूक्ष्म लोभ के मंदतम उदय के समय होनेवाली कर्मों की सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान ८१ क्षयोपशम दशारूप है। इस क्षयोपशम के समय होनेवाली जीव की वीतराग दशा ही क्षायोपशमिक चारित्र है। उपशम-क्षपक श्रेणी की अपेक्षा यहाँ उपचार से क्रमशः औपशमिकक्षायिक चारित्र भी कहा जाता है। काल- उत्कृष्ट काल अंतर्मुहूर्त और मरण की अपेक्षा जघन्य काल मात्र एक समय । गमनागमन उपशमक का यहाँ से ऊपर की ओर गमन ग्यारहवें में ही तथा क्षपक श्रेणीवाले का बारहवें में ही होता है। उपशमक का श्रेणी से गिरते समय नीचे की ओर नवमें गुणस्थान में गमन होता है। यहाँ नवमें गुणस्थान से आगमन होता है। उपशमक का ग्यारहवें गुणस्थान से गिरते समय भी यहाँ आगमन होता है। उपशमक का मरण के बाद विग्रह गति में प्रथम समय में ही चतुर्थ गुणस्थान में गमन होता है। विशेषता - १. अनंतगुणी - विशुद्धि आदि आवश्यक कार्य अष्टम गुणस्थानवत् यहाँ भी होते हैं। २. यहाँ सूक्ष्म - लोभ - कषाय-चारित्र - मोहनीयकर्मोदय के समय सूक्ष्म कषाय औदयिक भाव के सद्भाव में भी मोहनीय कर्म का आस्रव-बंध नहीं होता है; क्योंकि सूक्ष्म लोभ परिणाम जघन्यरूप से परिणत हो गया है। (विशेष स्पष्टीकरण के लिए पंचास्तिकाय गाथा १०३ की टीका देखिए ।) ३. यहाँ ज्ञानावरणादि तीन घाति कर्मों का जघन्य स्थितिअनुभागवाला आस्रव-बंध होता है। ४. यहाँ सांपराय शब्द अन्त-दीपक है। अतः यहाँ तक के सभी गुणस्थान सांपराय अर्थात् कषाय सहित ही हैं। P
SR No.009452
Book TitleGunsthan Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2014
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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